मनीआर्डर
नोट :- कहानी १९८० के आस-पास घटित होती है |
उस दिन फिर चार तारीख थी। पिछले तीन महीने से इस ही तारीख को बेनामी मनीआर्डर आ रहा था। बेनामी इसलिए क्योंकि जो नाम लिखा था वो मेरे परिचितों में किसी का नहीं था | हर बार एक ही संदेश लिखा होता था "लौटाना मत। तुम्हारे दिए एक कर्ज की किश्त मात्र है यह"।
संदेश पढ़कर भी मैं रुपये रखना नहीं चाहता था परन्तु घर की जरूरतों के कारण विवश हो जाता था। मेरा वेतन एक हजार रुपये मासिक था । इससे पाँच बच्चों के साथ गुजारा मुश्किल से होता था। हर महीने कुछ रुपये उधार लेने पढ़ते थे। पत्नी के ताने कर्जदारों के तकादों से भी ज्यादा भयभीत करते थे। पिछले तीन महीनों से हजार रुपए अतिरिक्त आने से घर की परिस्थिति सुधर रही थी। काफी कर्ज़ चुक गया था और पिछले महीने मालती को साड़ी और बच्चों को एक -एक जोड़ी कपड़े दिला दिए थे।
मैं इतना ही जानता था कि यह मनीआर्डर भोपाल से आ रहा था। कौन भेज रहा है, पता नहीं चल पा रहा था। भोपाल में मेरा कोई परिचित नहीं था और न ही मैं वहाँ कभी गया था।
इस बार मैं स्वार्थी और लालची बन मनीआर्डर की बाट जोह रहा था। "कुछ महीने और आता रहे बस। सब कुछ ठीक हो जाएगा।" मैं सोच रहा था।
लंच से कुछ पहले मनीआर्डर आ गया। डाकिया साथ में एक और पत्र लाया था- निमंत्रण पत्र | भोपाल में होने वाले कवि सम्मेलन का। शायद समय आ गया था कि मैं उस अज्ञात शुभचिंतक का पता लगाऊँ।
मैं पहले भी भोपाल जाना चाहता था लेकिन माल्ती को बताने के लिए कोई कारण नहीं था मेरे पास। इस निमंत्रण ने यह दुविधा दूर कर दी थी।
कभी-कभी ही मिलता था पारिश्रमिक वाले कवि सम्मेलन का न्योता। मुझसे ज्यादा खुशी माल्ती को होती थी ऐसे अवसरों पर। कवियों से विवाह होना किसी भी स्त्री के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात होती है और उनके साथ निभाना उनका साहस होता है।
कवि सम्मेलन रात को था लेकिन मैं सुबह ही भोपाल पहुँच गया। रेलवे स्टेशन से सीधा प्रधान डाकघर गया। मनीआर्डर की पर्ची दिखा कर जानकारी लेनी चाहिए लेकिन सरकारी कर्मचारी मदद करना अपनी तौहीन समझते हैं।
बड़े मान-मनुहार और बीस रुपये चुकाए तब जाकर भेजने वाले का नाम व पता मिला।
"मृगनयनी नाम की महिला चार महीनों से हमारी संकटमोचन बनी हुई थी। उनसे मिलना हर लिहाज से अनिवार्य था।" मैं दृढ़ निश्चय कर चुका था उससे मिलने का, फिर चाहे मुझे कवि सम्मेलन छोड़ना क्यों न पड़े।
टेम्पो पकड़ कर मैं उस पते पर पहुँचा परन्तु दरवाजे पर लटके बड़े से ताले ने ठेंगा दिखा दिया मुझे । मैंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की। फिर सोचा पड़ोसियों से पूछता हूँ।
बाईं ओर सटे मकान का दरवाजा खटखटा कर पूछा तो जानकारी मिली कि वह मकान काफी समय से बंद है और वहाँ मृगनयनी नाम की कोई महिला नहीं रहती थी। मैंने पूछा, "क्या यह मकान पिछले चार माह से बंद है?"
उन्होंने कहा, " पूरा साल होने को है।"
मैंने फिर पूछा, "उनका कोई और पता भी है।" उन्होंने उत्तर दिया, "घर का तो नहीं, पर हाँ, सुकृति प्रकाशन उन्हीं का है। बड़े बाजार में दफ्तर है।"
मैं बड़े बाजार को रवाना हो लिया। आश्चर्य हो रहा था कि इस युग में भी गुप्त परोपकार करने वाले हैं। गुत्थी सुलझ नहीं रही थी और मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। लाभ मिलना न मिलना अलग विषय था परन्तु मेरे प्रति इतनी अधिक दया और स्नेह रखने वाली स्त्री का परिचय न मिलना कौतूहल मचा रहा था। मैं कवि हूँ। निश्चित ही कपटी नहीं हो सकता। कवि-हृदय में मर्म और संवेदना तरल अवस्था में होती है। वह स्वयं उन्हें बहने से रोक नहीं सकता।
बड़े बाजार में भी निराशा मेरी प्रतीक्षा कर रही थी । शनिवार होने के कारण सुकृति प्रकाशन का दफ्तर बंद था। सोमवार तक भोपाल में रूकना मेरे लिए संभव नहीं था।
अब तक मिली निराशा की समीक्षा करते हुए मुझे कवि सम्मेलन का पारिश्रमिक छोड़ना मूर्खता लगी। आयोजकों द्वारा कवियों के लिए आराम गृह की व्यवस्था की गई थी। मैंने वहीं जाना उचित समझा।
भोपाल से असफल लौटते हुए मेरा मन मुझे कचोट रहा था परंतु मैं विवश था।
माल्ती पाँच सौ रुपए का पारिश्रमिक और घर में कुछ महीनों से होने वाली बरकत को अपने व्रतों का प्रसाद मान कर फूल रही थी। बिना खुद जाने मैं उस अनजान फरिश्ते के बारे में उसे बताना नहीं चाहता था।
दो महीने और बीत गए। रुपये बेनागा आए। मैंने पाँच सात सौ रुपए चोरी-चोरी जोड़े, कि कवि सम्मेलन के बहाने भोपाल जाऊँगा और लौटकर पत्नी को पारिश्रमिक के तौर पर वो रुपये दे दूँगा।
मैं माल्ती को अपना कार्यक्रम बताता, उससे पहले ही हमारे एक नोनीहाल को किताबें चाहिए थी, दूजे को स्कूल पिकनिक जाने की जिद थी और तीजे के जूते टूट गए थे। जोड़े हुए रुपए बराबर हो गए ।
दो महीने बाद दीवाली आ गई। मेरे अनजाने आर्थिक मददगार की बदौलत काफी सालों बाद हमारी दीवाली बहुत अच्छी रही। माल्ती और बच्चों ने खूब अरमान निकाले।
सब ठीक था। सभी खुश थे। लेकिन मेरा चित्त अशांत था। मैं कम बोलने लगा था। लिख नहीं पाता था। यह स्पष्ट था कि हर माह बिना भूले इतने रुपये भेजने वाला यह भगवान-स्वरूप व्यक्ति मुझ से ही संबंधित था। उसका वह संदेश और फिर मनीआर्डर का दफ्तर में ही आना दोनों इसी ओर इशारा करते थे।
दिन-ब-दिन मेरा बोझ बढ़ता जा रहा था। बहुत बार मैं कल्पना करता था कि यदि ये सारे रुपये मुझे एक साथ लौटाने पड़े तो? मेरा कलेजा काँप उठता था।
दस महीने हो गए थे। हजार रुपये प्रति माह आ रहे थे। कौन भेज रहा था और क्यों भेज रहा था, यह अभी भी नहीं पता था।
एक दिन मैंने दफ्तर से माल्ती को संदेश भेज दिया कि मैं दो दिनों के लिए बाहर जा रहा हूँ। साथ में कुछ रुपये भी भिजवा दिए। विवाह के कुछ वर्षों बाद पत्नी के लिए पैसा, पति से अधिक महत्वपूर्ण होता है शायद। दो-तीन सौ रुपए लौट कर भी थमा दूँगा तो शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी।' मैंने सोच लिया |
मैं रात की ट्रेन से भोपाल के लिए रवाना हो गया। सीधा सुकृति प्रकाशन के दफ्तर पहुँचना चाहता था मैं इस बार।
बुधवार था अगले दिन। छुट्टी नहीं होगी। कोई न कोई तो जरूर मिलेगा।
पूरे रास्ते मैं तरह तरह की कल्पनाएँ करता रहा, अनुमान लगाता रहा और बेचैन रहा।
तड़के ही मैं भोपाल पहुँच गया। कुछ समय स्टेशन पर गुजारा। जब बाहर सड़कों पर चहल-पहल शुरु हो गई तो मैंने बड़े बाजार के लिए टेम्पो पकड़ा।
सुकृति वालों का दफ्तर खुला नहीं था। मेरे पेट में हौला हो रहा था। मन तो नहीं था, पर मैंने पोहों का नाश्ता कर लिया।
करीब पौने दस बजे दफ्तर खुला। मैंने कुछ और देर इंतज़ार किया।
सवा दस बजे मैं घबराते हुए अंदर दाखिल हुआ।
दफ्तर छोटा ही था । बाहर वाले हालॅ में वही व्यक्ति मेज पर बैठा था जिसने दफ्तर खोला था।
"मैं, मृगनयनी जी से मिलना चाहता हूँ," मैंने उस व्यक्ति से कहा।
मेरा प्रयोजन सुनते ही वह खड़ा हो गया। उसके चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगीं। उसने दुविधा का थूक निगलते हुए मुझे बैठने के लिए कहा। मैं समझ गया था कि वह मृगनयनी और मनीआर्डर के विषय में कुछ जानता जरुर है।
'मृगनयनी नाम की तो यहाँ कोई नहीं हैं,' वह बोला। मैं उसे घूरता रहा। जानता था ऐसा करने से वह असहज हो जाएगा। 'फिर भी, मैं मैडम से पूछ कर बताता हूँ।' यह कहकर वह जल्दी से उठा और अन्दर वाले बंद कमरे की तरफ बढ़ा।
मैं समझ गया था कि अंदर बैठी महिला या तो स्वयं मृगनयनी है या इस काल्पनिक चरित्र की रचयिता।
वह एक मिनट से भी कम समय में बाहर आया और मुझे भीतर जाने को कहा।
कमरे का दरवाजा खोलते ही मैं ठिठक गया। बड़ी सी मेज के उस ओर खड़ी नैनिका मुस्कुरा रही थी। मेरी नसों में खून जम गया था। मैं न आगे बढ़ पा रहा था और न लौटना चाहता था।
'आओ न, शशांक। यहाँ तक पहुँच गए हो तो आगे भी आ ही जाओ।' उसने कहा।
मैं दो कदम आगे बढ़ कर खड़ा हो गया। कुछ देर उसे निहारा फिर कहा, 'दस महीनों से रुपये तुम भेज रही हो?'
वह चुप रही।
'क्यों? क्या जरूरत थी इस दया की? और वह भी बेनाम। भला क्यों? भगवान बनने का नया शौक चढ़ गया है क्या?'
'बाप रे! इतने सारे प्रश्न। इतना गुस्सा। बैठो तो सही।' वो बिल्कुल भी बदली नहीं थी।
मैं खड़ा रहा और उसे देखता रहा। मन ही मन सोच रहा था कि कह तो दिया इतना कुछ आक्रोश में। कहीं उसने भी कह दिया कि वापिस कर दो अगर तुम्हें ठीक नहीं लगा तो। मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि वो गुप्त मसीहा नैनिका होगी। याद ही कहाँ थी वो मुझे।
'बैठो न, शशांक। झगड़ा करने आए हो क्या बस?'
मैं अपनी गलती सुधारने के इरादे से धीरे से बैठ गया |
बाहर बैठा व्यक्ति पानी का गिलास व चाय मेज़ पर रख गया |
'हाँ, क्या कह रहे थे तुम, एहसान, भगवान् बनने की कोशिश ?' उसने हँसते हुए कहा |
'और क्या है ये सब, नैनिका?'
'मैंने तो हमेशा लिख कर भेजा था कि यह तुम्हारे दिए एक क़र्ज़ कि किश्त मात्र है|'
'मैंने तुम्हें कौनसा क़र्ज़ दे दिया? ज़िन्दगी ने बनाया ही कब मुझे इस लायक, कि मैं किसी को कुछ दे सकूँ?'
'दिया था | और बिना बताये, बिना जताए दिया था | मैंने भी उस ही तरह उस क़र्ज़ को उतरने कि कोशिश कि, बस |'
'मैं झुंझलाने वाला हूँ बस | कृपया करके आप सीधे शब्दों में समझाएंगी, नैनिका जी ?'
'हाँ. बताती हूँ | पर तुम काफी बदल गए हो| पहले काफी शांत रहते थे तुम |'
'ये सब छोड़ो | मुद्दे कि बात करो | मुझ पर अचानक इतनी दया का कारण क्या है? जब करनी चाहिए थी तब तो कि नहीं गयी ?'
'तुम न तब दया के मोहताज थे, न अब हो | और यकीन मानो, मैं तो इस स्तिथि में बिलकुल नहीं हूँ कि तुम पर कोई दया करूँ | कॉलेज में कितनी कवितायेँ लिख कर मेरे डेस्क में रखीं थीं तुमने, याद है ?' उसने मुझे देखा | वह शांत, संयमित, मुस्कुरा रही थी |
मुझे वाकई याद नहीं था | नैनिका को तो में जवानी कि नादानी समझ कब का भुला चुका था | भुला क्या मिटा चुका था |
'जानती हूँ, तुम्हें याद नहीं होगा | तभी तो मैंने कहा था कि क़र्ज़ देकर भूल तुम गए थे | त्रेसठ कवितायेँ लिखीं थीं तुमने डेढ़ साल में |'
'हाँ तो?' वो क़र्ज़ तुमने स्वीकार कहाँ किया था | अगले दिन टुकड़े टुकड़े करके वापस फेंक देती थी मेरे डेस्क में |'
'अपनी डायरी में नोट करने के बाद फेंकती थी | तुम फिर भी नहीं माने | यह वही क़र्ज़ है |'
'यह क़र्ज़ कैसे हुआ? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ |'
'किसी को महत्वपूर्ण होने का एहसास कराना, किसी को भगवान सा सम्मान देना, किसी को दिन रात सोचते रहना, क़र्ज़ ही तो हैं | कितनी भावनाओं से लिखी होंगी वो कवितायेँ तुमने ? त्रेसठ कविताओं में त्रेसठ हज़ार भावनाएँ घुटी होंगीं | सेकंड ईयर में प्यार हुआ था न तुम्हें? सात सौ दिनों में सात हज़ार बार तुम्हारी नज़रों में खुद के लिए प्रशंसा देखी थी | ख़ुशी तो मिलती ही है न इन सबसे? वही क़र्ज़ है ये |' वह बोलती गयी |
'इतना मोल समझतीं यदि उस सब का, तो स्वीकारा क्यों नहीं?' मैंने पूछ लिया | बस यूँ ही उत्सुकता हो रही थी |
'तीन बहनें-बहनें हीं थीं हम | भाई नहीं था | माँ-बाऊ जी बोझ समझ कर रोज़ अपनी परेशानी सबसे कहते थे | रोज़ कॉलेज के लिए निकलते समय माँ हिदायत देतीं थीं कि कोई ऐसा काम न करूँ जिसका छोटी बहनों पर बुरा असर पड़े |'
'अब अचानक क्या हुआ ?'
'अचानक कुछ नहीं हुआ, शशांक | बस मौका दे दिया ज़िन्दगी ने |
'सुकृति प्रकाशन मेरे पति का था | चार वर्ष पहले उनका देहांत हो गया | हमारे दो बच्चे हैं | उनके व अपने जीवन-यापन के लिए इसे चलाना मेरी विवशता थी | उनके जाने के बाद काम काफी कम हो गया | लोगों को मुझ पर विश्वास नहीं था | सारा काम बस मैं और विपिन जी ही सँभालते हैं | बाकि लोगों का वेतन मैं वहन नहीं कर सकती थी | अच्छा साहित्य प्रकाशन के लिए आ ही नहीं रहा था | तब मुझे तुम्हारी उन कविताओं कि याद आई | पर बिना तुम्हारी अनुमति के कैसे छापती | तुम्हें ढूंढा | तुम्हारी परिस्तिथि पता चली | मैं एक साथ तुम्हें कुछ दे नहीं सकती थी, इसलिए मासिक किश्त के रूप में तुम्हें रुपये भेजने शुरू किये | आश्वस्त थी, कि तुम मुझे पहचान लोगे किन्तु ऐसा नहीं हुआ |'
'नैनिका लिखती तो पहचानता न | मृगनयनी नाम प्रयोग क्यों किया तुमने ?'
'मैंने कहाँ प्रयोग किया | तुमने किया था कई कविताओं में मेरे लिए यह नाम | तुम सब भूल गए हो | अच्छा ही है न | हम दोनों ने ही इसे ज्यादा जटिल नहीं किया |'
'ऐसे ही पूछ रहा हूँ, क्या तुम मुझसे प्यार करतीं थीं ?'
वो हल्का सा हँसी | 'नहीं, कभी नहीं | हाँ, बस सम्मान करती थी तुम्हारी भावनाओं का | मैं स्वार्थी नहीं हो सकती थी | माँ के निर्देशों का पालन करना ही था मुझे | और फिर प्यार का मतलब किसी को पा लेना ही होता है क्या ? कुछ देर के लिए महत्वपूर्ण समझा या पूरी ज़िन्दगी के लिए समझा, ये कहाँ महत्वपूर्ण है? माप और परिमाप तो लोलुपता हैं, शशांक | इनके चक्कर में पड़ गए तो भूख कभी मिटती ही नहीं |'
मैं उसे देखता रहा और सुनता रहा | सोच रहा था कि ठीक ही तो हुआ | उसकी परिपक्वता बता रही थी कि मैं उसके योग्य ही नहीं था |
'खैर छोड़ो ये सब, बताओ, हमें इज़ाज़त है न, तुम्हारी वो कवितायेँ छापने की?'
मैंने उसकी आँखों में देखा | बहुत चमक थी उन आँखों में | मैं ज्यादा देर देख नहीं पाया |
'मेरी कहाँ हैं वो कवितायेँ | मेरे पास तो उनकी प्रति भी नहीं है | कोई पंक्तियाँ भी याद नहीं हैं मुझे | तुम्हें दे दीं थीं | तुम्हारा ही अधिकार है उन पर | मैं तो बस शर्मिंदा हूँ कि तुम्हारे रूपये नहीं लौटा पाउँगा |' मेरी आँखों में आँसू छलक आये थे |
'बीस हज़ार ठीक हैं न ?' नैनिका बोली |
'नहीं, अब मत भेजना कुछ भी | बहुत भेज चुकी हो तुम |'
'बीस तो तुम्हें लेने हीं होंगे | कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लेते हैं |' वह उठ कर दरवाज़े तक गयी और विपिन को कॉन्ट्रैक्ट अंदर देने के लिए कहा |
मैं चुपचाप हस्ताक्षर करता रहा लेकिन मेरे भीतर तूफ़ान मचा हुआ था |
कॉन्ट्रैक्ट साइन करने के बाद मैंने कहा, 'तुम्हारा यह एहसान कभी चुका नहीं पाउँगा मैं | रूपये मत भेजना अब , नहीं तो मैं अपनी ही नज़रों में गिर जाऊँगा |'
'ऐसा मत बोलिये, कविवर | आपका अधिकार है वो | हम आपकी कला कि कीमत देने लायक हैं ही नहीं | सच पूछो तो कोई प्रकाशक लेखक कि कला खरीद नहीं सकता | दिल और दिमाग पर कोई बोझ मत लो | बीस किश्तें भेजने के बाद मैं कुछ नहीं भेजने वाली | बिज़नस वोमेन हूँ |' वो फिर हँस पड़ी |
'मैं चलता हूँ |' कहकर, मैं खड़ा हो गया |
'ठीक है | और हाँ, काव्य संग्रह का शीर्षक " मृगनयनी " कैसा रहेगा ?' यही सोचा है मैंने | तुम चाहो, तो बदल सकते हो | अभी समय है |'
'मैं कौन होता हूँ, नैनिका | तुम जैसा चाहो , करो |'
वापसी बड़ी कष्टदायक थी | मेरे कदम घिसट रहे थे | शरीर बहुत भारी लग रहा था | मैं भोपाल कुछ हज़ार रूपये के बोझ के साथ आया था, परंतु कई क्विंटल भावनाओं के बोझ के साथ लौट रहा था | प्यार न उसे मुझसे था अब, न मुझे उससे था, पर फिर भी उसने क्या कर दिया मेरे लिए| मैं कभी उसका बदला चुका भी पाउँगा? इतना बड़ा कवि नहीं था मैं, कि मेरी किताब बीस हज़ार रूपये में खरीदे कोई | मैं कवि समझता था खुद | कवि, जो भावनाओं कि साँसों पर जीते हैं | मैं सोचता था कि प्रेम कि व्यख्या मैं ही कर पाता हूँ अपनी कविताओं में | पर नैनिका ने चुपचाप प्रेम कि सटीक व्याख्या कर दी | सच, खोने- पाने से कहीं ऊपर होता है प्रेम |
The story is very good. And the language coming from an expert talented writer. But there's a flaw. Is it possible to send a Benami money order. No. One has to mention it, may be a fake one. And an educated person, that too a writer will definitely try to check the name of the sender and there will be no need to go to post office just to know who the sender is. Let's be realistic and practical while writing even a fiction. Rest is unmatched. Fantastic! Keep it up.
जवाब देंहटाएंIs it possible to send a Benami money order?
जवाब देंहटाएंIs it possible to send a Benami money order?
जवाब देंहटाएंThe story is very good. And the language coming from an expert talented writer. But there's a flaw. Is it possible to send a Benami money order. No. One has to mention it, may be a fake one. And an educated person, that too a writer will definitely try to check the name of the sender and there will be no need to go to post office just to know who the sender is. Let's be realistic and practical while writing even a fiction. Rest is unmatched. Fantastic! Keep it up.
जवाब देंहटाएंRajeev Pundir sir, Please notice that it is mentioned later on that an unknown woman "Mrignayani" is sending the Money order. Thank you for reading the story.
जवाब देंहटाएंa nice story , i can't stop myself to read your storys.
जवाब देंहटाएंMany thanks, Subhash ji. Humbled.
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