गुरुवार, 6 अगस्त 2020

हमारी प्यारी साइकिल

 


                                                     हमारी प्यारी साइकिल 


पहले पहल आसमान से बातें करने की ललक जगाती है साइकिल l लड़कपन में साइकिल के पेडल पर खड़े होकर यूँ लगता है जैसे बादलों का झप्पट्टा मार मुट्ठी में बंद किया जा सकता है l दोस्तों के साथ साइकिल की दौड़ हवा को पहली चुनौती देने जैसा होता था लेकिन हवा के लिए ये खेल जैसा होता था l जीतती भौ वही थी और खेलते खेलते बालों को खूब चिढ़ाती थी l
कई दिनों से फिर से साइकिल चलाने का मन करता हैl आखिरी बार कब चलाई थी, याद नहीं है l

           शुरूआती बचपन में मुझे साइकिल चलाने का शौक नहीं रहा l बारह बरस का था जब दिल्ली से पूना गयाl वहाँ सब           साइकिल चलाते थे l मुझे भी साइकिल सीखने की धुन सवार हो गई l

 

पिताजी के पास बड़ी वाली हीरो साइकिल थी मेरे जन्म से भी पहले खरीदी हुई l वो बड़े गर्व से बताते थे, "सिर्फ 50 रूपये की सेकंड हैंड खरीदी थी l बहुत साथ दिया है इसने l कितनी सारी यादें जुड़ी हैँ इसके साथ l तुम सबका बचपन इसने भी देखा है l जब निधि बैठने लायक हुई थी तब छोटी सी गद्दी लगवाई थी लाल रंग की l फिर तू बैठने लायक हुआ तो एक और लगवाई l निधि तो कितनी बार सो भी जाती थी और मेरे हैंडल पकड़े हाथ पर सिर टिका लेती थी" पता नहीं कितनी बार बताया था पिताजी ने l हर बार उनकी आँखों में चमक आ जाती थी l
दूसरी चीजों की तरह पिताजी अपनी साइकिल का भी बड़ा ध्यान रखते थे l 

 

एक दिन ज्यादा सनक चढ़ी तो पापा की साइकिल खुद ही लेकर निकल पड़ा मैं l कैंची चलाने की कोशिश की l कुछ सफलता मिली पर फिर बहुत बुरी तरह गिरा l घुटने और ठोड़ी छिल गई l तब के बाद मैंने कभी कैंची नहीं चलाई l समझ भी नहीं पाया कि लोग आखिर इतने अटपटे तरीके से साइकिल चलाते क्यों हैँ जबकि वो इतने आरामदायक तरीके से चल सकती है l

 

अगले दिन स्कूल में सबको पता चल गया कि नया बालक साइकिल सीखते सीखते गिर गया l जिनको ये हुनहर आता था उन्होंने हमारी खिल्ली ऐसे उड़ाई जैसे वो यह चक्रव्यूह भेदना अभिमन्यु की तरह सीखे थे l
इतवार को पिताजी ने हमें साइकिल सीखाने का बीड़ा उठाया l घर के पीछे वाले मैदान में सीधा गद्दी पर सवार कर दिया और घंटे -डेढ़ घंटे के अभियान में गिरने भी ना दिया l उस दिन हम घर ऐसे लौटे जैसे राणा प्रताप पहले दिन घोड़े की सवारी करके लौटे होंगे l 

 

अगली शाम पिताजी के पीछे पड़ना पड़ा l वो अनमने मन से गए और पंद्रह मिनट में लौटा लाए l अगले रोज़ हमने पिताजी को कष्ट नहीं दिया l एक दोस्त को बुला रखा था l पर वो दोस्त ही क्या जो दुश्मनी ना निभाए l
भाई साहब ने दस मिनट बाद ही हमें एक्सपर्ट घोषित कर दिया l साइकिल ने बहुत बुरी तरह पटका मुझे l कच्ची चोटें फिर हरी हो गईं l साथ में कुछ एक नई भी मिल गईं l साइकिल का एक पेडल भी लटक गया l अपनी चोटों से ज्यादा साइकिल की चोट की चिंता थी मुझे l पिताजी उसी से दफ़्तर जाते थे l घर में उतावली का इनाम मिलना तय था l पिटाई से बचने के लिए रोनी सूरत बनाई, आँखों में थूक लगाया और खराब वाली एक्टिंग की l थप्पड़ नहीं पड़ा बस पर लताड़ ढाई सौ ग्राम ज्यादा पड़ी l

गिरते पड़ते कुछ दिनों में साइकिल चलानी आ गई l मेरे बाद मेरी बड़ी बहन और मुझसे छोटी बहन ने भी साइकिल सीखी l फिर पड़ोस में रहने वाली एक आंटी के साथ मिलकर माताजी ने भी सीख ली l 
  जब माताजी ने साइकिल सीख ली तब हमारे यहाँ एक नई साइकिल आई l   स्पोर्ट्सलिंक की लेडीज साइकिल -लाल रंग की l तभी हमें पता चला साइकिल भी द्विलिंगी  होती है l
उस साइकिल से पहली बार मैंने साइकिल मैराथन में भाग लिया था l पूना के पथरीले ऊँचे नीचे रास्तों पर साइकिल चलाने का मज़ा ही अलग है l 
एक दो साल लेडीज साइकिल खूब चलाई l फिर लड़के चिढ़ाने लगे l मैं फिर से पिताजी की 24 इंची मर्दाना साइकिल चलाने लगा l 

 

क्रिकेट के मैच खेलते जाते समय आगे एक दोस्त और पीछे क्रिकेट की बड़ी सी किट लादकर कई बार उल्टी हवा से लड़ा हूँ मैं l कई बार ट्रिपल सीट पर अपनी ताकत की शेखी बखारी l
साइकिल से कई बार चोट भी खाई l लेकिन साइकिल चलाने वालों को अपनी चोट से ज्यादा साइकिल की चोट की ज्यादा चिंता रहती है l

 

पापा की प्यारी सेकंड हैंड साइकिल ने बुरे समय में मेरा भी बहुत साथ दिया l गरीबी के समय में गारमेंट्स का बड़ा सा बोरा उस बूढ़ी साइकिल के करिअर पर बाँधें कई किलोमीटर दूर से लाया और छोड़ा है मैंने l कई बार जेब में अठन्नी भी ना होती थी l मन में डुबका लगा रहता था कि पंक्चर हो गया तो क्या करूँगा l पर वो साइकिल पोते की तरह प्यार करती थी मुझे l शायद ही कभी रूठी हो l मैं थक जाता था वो कभी हाँफती ना थी l 
जीवन की कठिन परीक्षाओं से उबारने में पापा की चहेती साइकिल ने हमारे परिवार का बहुत साथ दियाl मैंने स्कूटर ले लिया l बूढ़ी साइकिल को आराम मिल गया l हम कभी कभार ही उसे चलाते थे l 

 

फिर एक दिन किसी अखबार बाँटने वाले लड़के की साइकिल चोरी हो गई l उसने हमसे साइकिल बेचने की बात पूछी तो पापा ने उसे ऐसे ही दे दी l 
कभी कभार वो दिखता तो पापा साइकिल से ऐसे मिलते जैसे कोई बिछड़े दोस्त से मिलता है l बुरी हालत में होती तो लड़के को डाँट भी देते थे l 

 

काफी वक़्त गुज़र गया l घर में तीन कारें आ गईं l मोटर-साइकिल आई, चली गईं l पिताजी भी चले गए l पिताजी तो रोज़ याद आते हैँ पर साइकिल की याद तब जरूर आती है जब मैं अपने बचपन या बुरे दिनों को याद करता हूँ l
काले रंग की 24 इंची हीरो साइकिल वाकई हीरो थी l वह हमारे बचपन से जवानी तक आड़े तिरछे हर वक़्त में सहभागी रही l आज पता नहीं वो होगी या नहीं होगी l होगी तो ना जाने किस हाल में होगी l

           हम उस साइकिल के हमेशा कृतज्ञ रहेंगे l


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