पुरुष हराता रहा प्रेम को
पुरुष को नहीं आया प्रेम करना,
वह नहीं खोल पाया स्त्री-मन की तह,
बस ख्याल रखने,
जरूरतें पूरी करने को समझता रहा प्रेम।
पुरुष ने
अपनी अपहृत पत्नी को वापिस लाने को,
बाँध दिया सागर पर सेतु।
लड़ लिया रण।
पर खुद को आदर्शवादी सिद्ध करने को,
उस ही पत्नी का कर दिया परित्याग।
पुरुष हराता रहा प्रेम को,
और हारता रहा प्रेम में।
पुरुष ने
अपने शैशभ-प्रेम को,
किसी और का होने दिया
पर मूर्तियों में खड़ा रहा प्रेमिका के साथ।
समस्त संसार से करा दी उसकी पूजा,
पर अपनी पत्नी को समझा ना सका,
प्रेम और विवाह के अंतर की सार्थकता।
पुरुष हराता रहा प्रेम को,
और हारता रहा प्रेम में।
पुरुष ने
प्रेयसी के मन में बोया प्रेम,
पर, वो पौध को पेड़ बना ना पाया।
देह के ताप में पिघलता रहा,
प्रेम के गले में बाँध कर,
अधिकार की रस्सी.
पौरुष की छड़ी पटकता रहा।
पुरुष हराता रहा प्रेम को,
और हारता रहा प्रेम में।
पुरुष ने
निःस्वार्थ प्रेम किया तो,
कूद पड़ा कर्त्तव्यों के खलहर में,
त्याग के मूसलों से कुटता रहा,
पत्नी तो दिखी,
उसके भीतर प्रेयसी फिर ना दिखी।
संभाल, सांत्वना, भोजन, देह, सब मिला,
वात, पित्त, कफ, अनिद्रा, मधुमेह भी मिला,
प्रेम, ना उसने दिया, ना उसे मिला।
पुरुष हराता
रहा प्रेम को,
और हारता रहा प्रेम में।
© गौरव शर्मा लखी
#पुरुष #प्रेम #प्रेमी #कविता #love #man #manhood #mysogyny #feminism
Kavi to endoscope kar deta hai sabdo ko bhav aur bhavnao ka sahi chitran hai
जवाब देंहटाएंawesome lines
जवाब देंहटाएंBoht umda
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत खूब , गौरव जी 👏🏼👌🏼
जवाब देंहटाएंVery beautifully penned
जवाब देंहटाएं