शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

"मैं न गा पाता हूँ , न ही नाच पाता हूँ "







         "मैं न गा पाता हूँ , न ही नाच पाता हूँ "


तीसरी क्लास में मोहल्ले के ही एक प्राइवेट स्कूल में पढता था मैं | माँ भी उस ही स्कूल में पढ़ाती थीं | स्कूल में एक डांस टीचर भी आते थे | माँ ने मुझे और मेरी बहनों को कत्थक सिखाने के लिए मास्टरजी से बात कर ली | स्कूल खत्म होने के आधे घंटे बाद का समय तय हुआ | 
पहले दिन मैं भी अपनी बहनों जितना ही उत्साहित था | हम स्कूल से आए | माँ ने फटाफट फुलके सेके | सब्जी सुबह ही बनाकर गईं थीं | मास्टरजी के आते ही हम 'पग घुंघरू बाँध' तैयार हो गए |




लेकिन मास्टरजी ने आते ही सवा-दो रूपये थमाकर मुझे हलवाई की दूकान से लस्सी लाने भेज दिया | 
वो मोहल्ला नया-नया ही बसा था | काफी कम दुकानें थीं | वो भी हमारे घर से काफी दूर | 

लस्सी एल्युमीनियम के जंबो गिलास में मिलती थी | उस समय वो गिलास मेरे पौने हाथ के बराबर रहता होगा | गिलास के साथ लस्सी मिलने का अर्थ यह  था की मास्टरजी के लस्सी पी लेने के बाद गिलास वापिस भी करने आना होगा |
आधा किलोमीटर दूर से जुलाई की भरी दोपहरी लस्सी लाने और गिलास वापिस लौटा कर आने में आठ साल के बच्चे को जितना समय लगना चाहिए , मुझे भी उतना ही लगा होगा | लेकिन मास्टरजी की सेवा करने के चक्कर में हम पहले दिन कत्थक का मात्र एक स्टेप ही सीख पाए |

"ता थई- ता थई - तिग-था -तिग-तिग-थई "

अगले दिन भी यही हुआ | मास्टरजी ने लस्सी पी | हमने वही स्टेप कर के दिखाया और क्लास ख़तम हो गई | 
अगले दिन हमने लस्सी ली और हलवाई की दूकान से थोड़ी दूर आकर खुद ही लस्सी का गिलास गटक लिया  | गिलास हलवाई को लौटाया और डकार लेते हुए घर लौट आए | 
मास्टरजी लस्सी का बेचैनी से इंतज़ार कर रहे थे | हमारा खाली हाथ देखकर पुछा " क्या हुआ? क्या दूकान बंद थी ?"

"नहीं, सर | गिलास हाथ से छूट गया | लस्सी बिखर गई थी तो मैं गिलास वापिस करके आ गया |" 

मास्टरजी को गहरा आघात लगा था | उन्होंने खींच कर एक रेहपट रसीद कर दिया | देखने में डेढ़ पसली के मास्टरजी का थप्पड़ तो गूंजा ही, हमारा राग भैरवी ही स्वतः ही शुरू हो गया | 
माँ ने बड़ी विनम्रता से मास्टरजी को अगले दिन से आने को मन कर दिया और इस तरह हम कत्थक में पारंगत होते होते रह गए | इतना ही नहीं , हम किसी बरात में भी घोड़ी के आगे नाच नहीं पाते | कई लोग हमसे इस बात पर नाराज़ हो जाते हैं | पर हम क्या करें ? 


हाँ, ""ता थई- ता थई - तिग-था -तिग-तिग-थई " वाला स्टेप हम आज भी करके दिखा सकते हैं |



हाँ जी, तो अब हम बताते हैं कि हम गा  क्यों नहीं पाते ...

अगले वर्ष, यानि कक्षा चार में हम एक दूसरे स्कूल में पढ़ते थे | स्कूल में किसी प्रोग्राम के लिए ग्रुप-सांग के लिए हमें भी चुना गया | स्कूलों में यह दिक्कत है कि किसी भी एक्टिविटी के लिए बच्चों का चुनाव शक्ल और पढाई कि परफॉरमेंस के हिसाब से ही होता है | गाने-बजाने या एक्टिंग की प्रतिभा को तो महत्व ही नहीं देते अध्यापक-गण |

"तुम समय की रेत पर छोड़ते चलो निशां... पुकारती तुम्हे ज़मीं, पुकारता है आसमां "
पंकज उधास जैसी शक्ल और मूंछों वाले गुरूजी पूरी तन्मयता से हारमोनियम के साथ गाते और फिर बच्चों से गाने को कहते | आगे वाली लाइन में दाएं से तीसरे नंबर पर खड़े थे हम | हमारे आवाज़ कोरस में शायद सबसे अलग आ रही थी | 

उस दिन बच्चों के साथ खेलते खेलते हमारी पैंट के सामने वाले सारे बटन टूट गए थे | बार-बार सहेजते पर खिड़की के कपाट फिर खुल जाते थे | शायद इस वजह से भी हमारे सुर नहीं लग रहे थे |
संगीत-सम्राट-तानसेन-तुल्य गुरूजी बार-बार गवाते पर हमारे आरोह-अवरोह पूरे ढीढ हो गए थे | 

गुरूजी का संयम टूट गया | उन्होंने हारमोनियम झटके से परे किया और उबाल पड़े , "पैंट के बटन लगा नहीं सकता है , गाना क्या गा पायेगा ? भाग जा यहाँ से |" 
ग्रुप में लड़कियां भी थीं | स्कूल में इज़्ज़त थी हमारी | गुरूजी ने मिटटी में मिला दी | 








हम कई दिन तक सदमे में रहे |

नार्मल हुए तो प्रण  कर चुके थे कि  कभी गाना नहीं गाएंगे | कभी गाया  भी नहीं | हाँ, गाने सुनते हैं | गीतों और कविताओं का शौक है | गुलज़ार साहिब और साहिर साहिब की पूजा करते  हैं | पर गाना सुनाने की कभी कोशिश नहीं करते |
एक बात और, बटन वाली पैंट भी तब के बाद आज तक नहीं पहनी हमने | आप भी मत पहनना और न ही अपने बच्चों को पहनाना | नहीं तो , वो भी गाना नहीं सीख पाएंगे |



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