रविवार, 14 अगस्त 2016

लाल-किले का कवि-सम्मलेन


                                         

                                        लाल-किले का कवि-सम्मलेन 

                                       
                                             
                                                   
                             स्वतंत्रता दिवस पर एक उपाख्यान 







वो बड़े अच्छा समय था- यौवन के मस्तमौला दिन | लिखता तो मैं बचपन से ही था पर तब कवि सम्मेलनों में जाने के लिए भी बड़ा उत्साहित रहता था | 

पंद्रह अगस्त की संध्या पर लाल किले में होने वाले कवि सम्मलेन के निमंत्रण पत्र कैसे भी कहीं से प्राप्त करके वहाँ लगभग हर वर्ष जाता था | ऐसे ही एक स्वंतंत्रता दिवस के कवि सम्मलेन का किस्सा आज आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ |

मैं, उस समय शायद अठारह या उन्नीस वर्ष का रहा होंगा | लाल किले  के प्रांगण में कवि- सम्मलेन चल रहा था | बहुत सरे जाने माने कवि आमंत्रित थे | सभी नाम तो याद नहीं हैं परंतु, श्री ओमप्रकाश आदित्य जी, कुंवर बैचेन साहब और आदरणीय हरिओम पंवार जी मुझे अच्छे से याद हैं |

हरिओम पंवार जी को मैं पहली बार सुन रहा था | उन्होंने अपनी ओजस्वी कविता की कुछ ही पंक्तियाँ  सुनाई की मैं उनका प्रशंसक  हो गया |




कविता  वीर रस की ही थी जिसके लिए हरिओम जी जाने जाते हैं | बेनज़ीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री थीं उस समय | कविता के बोल तो याद नहीं हैं लेकिन हरिओम जी की कविता के बीच में ही हज़ारों श्रोताओं ने " चलो पाकिस्तान, चलो पाकिस्तान " के नारे लगाने शुरू कर दिए | धीरे धीरे लगभग सभी खड़े होकर नारे लगाने लगे | 

उनमें से मैं भी एक था | ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो युद्ध का उद्घोष हो रहा हो | मुस्लिम श्रोता चिंतित, चुपचाप, सिकुड़े हुए अपनी कुर्सियों पर बैठे थे | माहौल बिगड़ता देख श्री हरिओम पंवार जी को बीच में रोक दिया गया और दिल्ली  के तत्कालन मुख्यमंत्री श्री मदनलाल खुराना जी को मंच पर  आकर श्रोताओं से धीरज रखने का निवेदन करना पड़ा | लगभग आधे घंटे के विघ्न के बाद कवि-सम्मलेन पुनः  प्रारम्भ हुआ |

घटना बहुत छोटी सी थी | और, यदि स्तिथि बिगड़ जाती तो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होता किन्तु, एक कविता कैसे कुछ ही क्षणों में हज़ारों हृदयों को आंदोलित कर सकती है व देश भक्ति की सोई हुयी भावना को जगा सकती है, यह मैंने अपने जीवन मैं सिर्फ तभी देखा था |

श्री हरिओम पंवार जी आज नही उस ही प्रकार ओजस्वी और देश प्रेम से ओट-प्रोत कवितायेँ कहते हैं और मैं उनका तभी से प्रशंसक हूँ |

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