वक़्त और मैं...
वक़्त की आंच पर उबलता हूँ, भाप लो
चलता-फिरता अलाव हूँ, हाथ ताप लो |
सपने दिखाता है, खुद तोड़ भी देता है
पर रखे पुख्ता कि उम्मीद का जाप हो |
कभी ठोकरें देता है, तो सहारा कभी,
गिराना-उठाना ही बस क्रियाकलाप हो |
काम-धाम, रिश्ते-नाते, सबसे सरोकार उसे,
पुण्य मुझे मिले न मिले, उसका प्रताप हो |
मेरी कोशिशें उसके मिज़ाज़ की मोहताज हैं,
बंदिशें इतनी रखता है जैसे मेरा बाप हो |
दिन सा उजला कभी, स्याही से सना कभी,
पीछे पड़ा मानो पिछले जनम का पाप हो |
बेचैन बड़ा है,नामाकूल कभी ठहरता नहीं,
किसी वंश को मिला खानाबदोशी का शाप हो |
मैं कुछ भी कहूँ, वो सुनता ही नहीं,
फैसले थोप देता है ऐसे कि खाप हो |
गौरव शर्मा
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