शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

कवि



सभी कवियों को समर्पित....

                                     कवि 




उनके लिए चाँद वो नहीं जो विज्ञान की किताबों में लिखा होता है। न सूरज आग का गोला होता है। रात काली शाल ओढ़े कोई रूपसी दीखती है उन्हें और सितारे छत की मुडेर पर बैठा मोर चुग ले, ऐसी  मीठी गोलियों जैसे लगते हैं।
वो रास्तों से बातें करते चलते हैं। पता नहीं मंजिलों की चिंता होती भी है उन्हें या नहीं। शायद इसलिए कभी भटकते नहीं वो।
सच, बड़े अनबूझे से होते हैं कवि।

 क्रांति को ईंधन चाहिए हो, मौसम के यौवन के मद का व्याख्यान हो, बसंत का आगमन हो या शिशिर की विदाई | रगों में आक्रोश की चाह हो, या उसी आक्रोश को शांत करने की ललक- कवितायेँ सब कुछ करने में सक्षम हैं | सोचिये, क्या कवियों से बड़ा इंजीनियर हो सकता है कोई? 

कवि की कलम मनो जादूगर की छड़ी हो- कागज़ पर घूमी और कमाल हो गया | बर्फ के टुकड़े शोले बन गए, आसमान का कोना  लटक गया, हवा गुनगुनाने लगी, जो कभी किसीसे नहीं बोलते, वो पता नहीं क्या क्या कह जाते हैं | जाने कौन सी स्याही भरते हैं कलम में | स्याही तो एक ही रंग की होती है पर कागज़ पर कड़ाई कई रंगों की उभरती है | एहसास ऐसे पिघलते हैं जैसे गर्म तवे पर मक्खन | 

कोई बहुत सजग होकर रेत पर पैरों के निशान बनाता चले और कोई दूसरा उन निशानों को सहेज कर उठा उनकी तह बनाता रहे - ऐसी होती है कविता।

कवियों को शायद धुंध दिखती नहीं या उन्हें धुंध से कोई फर्क नहीं पड़ता। हमेशा ख्यालों की धुंध में खोए जो रहते हैं।
मन में तहखाना तो सबके होता है पर कवियों के मन में कुछ ज्यादा गहरा होता है। वक्त के साथ साथ यह तहखाना और गहरा होता रहता है। उसमें खिड़कियाँ भी बनती चली जाती हैं। इंजीनियरिंग की न जाने कौन सी तकनीक है साहब। खिड़कियों से हवा अन्दर आती है और खुशबू बाहर आती है। सूखे पत्तों से संगीत निकलता है और भावनाएँ नाच उठती हैं।









कवि पैरों से नहीं चलते शायद। मन के परों से उड़ते हैं। रोशनी से वायदा ले लेते हैं, रात से दोस्ती कर लेते हैं, मुस्कानों को सुनते हैं और हथेली भी गीली न कर पाँए उतने आँसुओं को सैलाब बता देते हैं।

आम लोगों के लिए ख्वाब बड़े वी.आई.पी. होते हैं -प्रतिष्ठित और गणमान्य। पर कवि जैसे उन्हें लंगोटिया यार समझते हैं जब चाहे आवाज लगा ददी। कभी बेचारे लूंगी में बैठे होते हैं तो कभी हजामत बना रहे होते हैं । उन्हें चैन नहीं लेने देते।


पर शब्दों से सृष्टि रच सकने में सक्षम ये कवि खुद बड़े अभिशप्त से होते हैं | कुंठाओं से ग्रस्त | मन में दर्द का अम्बार लिए हुए, आंसुओं का एक शांत  सागर पाले हुए | शायद सब पर लागू न होता हो किन्तु अधिकांशतः ऐसा ही होता है | खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पाते हों शायद | ज़िन्दगी कल्पनाओं जैसी नहीं होती | न ही कविता होती है | ज़िन्दगी घिनोना, नंगा, वीभत्स सच होती है | इसे सपनों की तरह जिया जाये तो दुःख ही होगा | इस सब के बावजूद, कवि आशावादी भी होते हैं | एक बूँद आशा मिल जाये बस, खीर बनाने को तैयार रहते हैं कवि | यूँ ही दुनिया पागल नहीं कहती कवियों को | 
अपने टुकड़ों को सहेज कर रखना खूब आता है इन्हें | ज़िन्दगी उधेड़ने से बाज नहीं आती पर ये कविताओं से झटपट सिल लड़ते हैं उस उधड़े को | कवितायेँ ही इनका मरहम है और कवितायेँ ही इन्हें बींधती भी हैं |

हंसी महंगी होती है और हँसाना एक महंगा शौक | दूसरे के मन को मांज कर दुबारा चमका देना- इसी तपस्या का नाम है कविता और उन तपस्वियों को ही कहते हैं कवि |




कवियों को समर्पित इस लेख का अंत अपनी एक कविता से करना चाहता हूँ | आशा है आप सब को पसंद आएगी |



                                                                                 मेरी आँखें 

मैं अपनी आँखों को सामने रखकर

बतियाता हूँ घंटों
बातों ही बातों में कोशिश करता हूँ
भांप लूँ इनके मन को।

क्यों नहीं देखती ये
जो सब देखती हैं।
गिलहरी की अठखेलियाँ जैसे काफी न हों
ये उसके दांत गिनना चाहती हैं।
उडती चिड़ियों का पीछा नहीं करती
उनके पंजों ने जो फूल छापा था
वो ढूँढती हैं।

ये ख्वाबों के लिए तरसती नहीं
जाने कितने छोड़ गए हैं बाप दादा जैसे
दिन में कई जोड़े बदल लेती हैं 
सन्दूक के सन्दूक भरे पड़े हों जैसे।

अभी तक चश्मा नहीं माँगा है इन्होंने,
तेज़ रौशनी में चुंधियाती नहीं हैं,
हर दर्द तजुर्बे सा पाल लिया हो जैसे,

अंधेरों  में भी घबराती नहीं हैं |

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