शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

बेआवाज़ एहसास


                               
                                                                 



                                                                      बेआवाज़ एहसास 


  


बचपन से ही क्रिकेट के बड़े खुर्राट शौकीन  थे हम। स्कूल से आते ही पेट-पूजा की और बल्ला उठा लिया। कुछ और सूझता ही नहीं था।

ग्यारहवीं जमात में फिरोजशाह कोटला जाया करते थे प्रैक्टिस के लिए। कोटला मैदान का नेट प्रैक्टिस वाला मैदान पीछे की तरफ है। भगत सिंह बस टर्मिनल के बराबर से एक संकरी सी सड़क जाती है। राजघाट के बस स्टॉप पर उतरकर पैदल मैदान पर जाते थे। पहले वहाँ एक छोटा दरवाजा भी होता था जो बाद में बंद कर दिया गया। उस दरवाजे के ठीक सामने, सड़क के दूसरी ओर एक मूक-बधिर स्कूल है। ग्राउंड के एक कोने पर छोटी सी कैंटीन थी | स्कूल की आधी छुट्टी होती या पूरी, लड़के कैंटीन से सामान लेने के लिए मैदान पर आ जाते थे | 

एक रोज़ ग्राउंड पर जाते समय सामने से एक सरदारजी आ रहे थे। हम तीन थे। एक ने घड़ी पहनी हुई थी जो बारह बजा रही थी। हमें मौका पड़ा मिल गया और उस उम्र में तो, जो सोच लो वही दस्तूर होता है। उसने घड़ी आस्तीन में छुपा ली। सरदार जी पास आए तो मैंने बड़ी मासूमियत से पूछा, "क्या टाइम हुआ है, अंकल ?"


सरदारजी ने कलाई उठाइ और घड़ी देखते ही हमारे मनसूबे समझ गए। कुछ क्षण सोचने के बाद बोले, " बारह बजकर दस मिनट।" उनके आगे बढ़ते ही हम ताली मार कर हँस पड़े। सरदारजी ने मुड़कर नहीं देखा। बड़ा मजा आया।

मैदान पर हमने सारे लड़कों को ये बात बड़े चटकारे लेकर सुनाई। 

 कुछ दिन बाद, मैं तैयार होकर कैन्टीन में चाय पीते-पीते अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। स्वेटर उतारकर मैंने कमर पर बाँध रखा था और थाई पैड ( जांघों को चोट से बचाने वाला पैड) पतलून के उपर बाँधा हुआ था।

डेढ़ बजे  गूँगे -बहरे बच्चों की छुट्टी हुई। काफी सारे लड़के मैदान पर आ गए | कुछ कैंटीन पर टूट पड़े| दो लड़के दूर खड़े इशारों वाली अपनी भाषा में बतिया रहे थे | मैं विस्मित हो उन्हें देख रहा था | बहुत जल्दी-जल्दी  बातें कर रहे थे वो और बीच-बीच में खिल्ली मार कर हँस रहे थे | 

उनकी नज़र और इशारे मेरी ही तरफ थे | मैं और उत्सुक हो गया | समझ कुछ नहीं आ रहा था | उनका आत्मविश्वास साफ़ झलक रहा था| कहीं भी कोई कुंठा, निराशा, उदासी कुछ नहीं| बड़े मज़े लेकर, तालियां मार मार कर मस्ती में बात कर रहे थे |


कुछ देर बाद कैंटीन वाला फ्री हुआ तो मुझे उन बच्चों को घूरते हुए देखकर उसने भी उनकी बातचीत समझने की कोशिश की होगी | वह काफी समय से वहाँ कैंटीन चलाता था इसलिए मूक-बधिर लोगों की सांकेतिक भाषा समझता था |

वह बोला, " क्या देख रहा है?"
"कुछ नहीं| इनकी बातचीत समझने की कोशिश कर रहा हूँ |पर पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा |" मैंने कहा |

" तेरे भेष का मज़ाक उड़ा रहे हैं ये | कह रहें हैं ये ऐसा वैसा ही खिलाडी होगा | बेकार सा|" वह हँसते हुए बोला |

" सच?" मैं आश्चर्यचकित था | ऐसे ही किसी का मज़ाक उड़ाने के लिए बड़ा आत्मविश्वास चाहिए होता है| मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि शारीरिक रूप से प्रकृति का अन्याय झेल रहे उन छोटे-छोटे लड़कों में अपनी आयु से बड़े लड़के का मज़ाक उड़ाने का विश्वास होगा | मुझे सरदारजी याद आ गए | और एहसास भी हुआ कि उन्हें कैसा लगा होगा |

अपना मजाक उड़ता देख मैं झेंप तो रहा था लेकिन उन बच्चों के अपनी शारीरिक सीमितता के बावजूद छोटी- छोटी बातों और जो नज़र आ जाए उसी में हँसी ढूँढ लेना मुझे अधिक विस्मित कर रहा था।

मैं नाराज नहीं था । पता नहीं क्यों उन्हें चुपके-चुपके देखते हुए भी मेरी आँखों के सामने सरदारजी का चेहरा घूम रहा था।
अहसास हमें तभी होता है जब हम स्वयं शिकार बनते हैं। शिकारी कभी शिकार की  मन: स्तिथि नहीं समझ सकता।
कोच ने आवाज़ लगाइ तब भी मैं इस ही गहरी सोच में डूबा था। खिसियानी मुस्कान लिए मैं पिच की तरफ बढ़ गया। पीछे मुड़कर देखने की इच्छा बहुत थी पर मैंने ऐसा किया नहीं।


उन बेआवाज़ों के मज़ाक से मेरे कान बहुत देर तक झनझनाते रहे | उसके बाद जब भी उनके स्कूल की छुट्टी होती, लड़कों के झुण्ड में, मैं उन दो लड़कों को पहचानने की कोशिश करता | लेकिन कभी पहचान नहीं पाया |

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