रविवार, 31 जुलाई 2016

दोस्ती




                                                                               




                                                                                दोस्ती



संजय मेरे लिए मित्र से बढ़कर था। मैंने सदा ही उसे एक बड़े भाई की तरह सम्मान दिया था और मेरे प्रति उसका व्यवहार भी छोटे भाई सरीखा ही था। लेकिन उस दिन उसने सिद्ध कर दिया कि उसका स्नेह आडंबर नहीं था ।

चैरिटेबल सोसायटी की मीटिंग में हम दोनों अगल-बगल में बैठे थे। छह महीने से मैं घर पर बैठा था। माली हालत खराब चल रही थी। संजय से जब कहता था , वह मदद को न नहीं कहता था। सोसायटी का लोन लेकर भी हजम कर चुका था मैं।


मीटिंग चल रही थी। अक्सर ऐसी संस्थाओं में पदाधिकारी दूसरे सदस्यों को नगण्य ही समझते हैं। संजय उन्हें सुन रहा था या नहीं, मुझे नहीं पता। लेकिन मैं सिर्फ अपने हालात का विश्लेषण कर रहा था ।

अचानक संजय ने मुझे कुहनी मारी और कहा, 'यार, अपना पैर जरा नीचे रख ले। तेरा जूता लग रहा है बार-बार।'
मैंने माफी माँगते हुए अपना पैर घुटने से उतार लिया। 


मीटिंग खत्म होने पर हम बाहर निकले। संजय ने स्कूटर स्टार्ट किया । मैं अभी भी गुम था। बहुत बोलने वाला संजय भी चुप था। 
मार्केट से  निकलते हुए संजय ने। स्कूटर एक जूतों की  दुकान पर रोक दिया। 


'कुछ लेना है क्या?' मैंने पूछा।


'हाँ, जूते लेने हैं तेरे लिए '


मैं उसे देखता रहा।


'तुझे पता है न, तेरे जूतों में छेद है?'


मैं कुछ बोल नहीं पाया।


'तेरा जूता लग नहीं रहा था मुझे पर उसकी तली का छेद मुझे धिक्कार रहा था। किसी और की निगाह न पड़ जाए इसलिए तुझे पैर नीचे करने के लिए कहा था।'


मेरी आँखों में आँसू तैरने लगे। उसने अपना हाथ मेरे कांधे पर थपथपाया।


'मेरे पास पैसे नहीं हैं अभी । फिर ले लेंगे।'


'मैं लाया हूँ तुझे यहाँ। पैसे भी मैं ही दूँगा। मना करे तो साथ में  ये भी  कह दे  कि तू अजनबियों से मदद नहीं  लेता।'
उस दिन मुझे जूते दिला कर ही माना  वो।


समय गुजर गया। मेरे अच्छे दिन आए और संजय से मेरा मिलना भी कम हो गया। मैं जूतों के पैसे कभी लौटा नहीं पाया। शायद वो लेता भी नहीं। अब मेरे पास आठ जोड़े जूते हैं। बदल-बदल कर पहनता हूँ। लेकिन हर रोज़ चश्मे बाँधते हुए दोस्ती के उन जूतों की याद खुद ही आ जाती है और साथ में आँसू भी। कुछ अहसान चुकाए नहीं जा  सकते। खासकर वो, जो अहसान समझ कर नहीं किए जाते ।


हम मिलें या न मिलें लेकिन संजय जैसे  दोस्त पर मुझे हमेशा नाज़ रहेगा।

रविवार, 24 जुलाई 2016

ज़िन्दगी और कविता


...सभी कवियों को शायद अपनी सी लगे ये कविता...बात आप के हृदय तक पंहुचे तो प्रतिक्रिया अवश्य दीजियेगा...




ज़िन्दगी और कविता



वक़्त के हाथों में मानो सम्भली,
पुरानी डायरी जैसी है ज़िन्दगी,
लिहाफ वैसे तो धो-पोंछ साफ़ है,
पर थोड़ा झुर्रीदार, थोड़ा बदरंगी |


दो सौ और कुछ पन्ने भरे हुए हैं,
कवितायेँ काफी पूरी हैं,अधूरी भी,
खुशियां फुदक रहीं हैं यहाँ वहां,
दुःख-उदासी है,कहीं मजबूरी भी |


पूरी जो हैं, उनमे से,बहुत हैं जो,
मंजिल पर पहुँच ख़ुशी से ऐंठीं हैं,
पर कुछ रवाना कहीं को हुईं थीं,
पहुंचीं कहीं,मुंह लटकाये बैठी हैं |


कुछ मुखड़े ही हैं बस, बढ़े ही नहीं,
जाने मर गए या शब्द उनसे चिढ़ गए,
गरीब बेचारे कुछ, अंतरा नहीं जुटा पाये,
कुछ झग्लाडू से, स्याही से ही भिड़ गए |


लिखते-लिखते आंसू टपकें होंगे ,
दो पन्ने हैं, सूख के अकड़ गए हैं,
मिटे शब्दों के धब्बे हैं, धुंधलका है,
कुछ शब्द अपाहिज, आधे ही बचे हैं |


कुछ अंतरों पर वक़्त ने ही, शायद,
बड़ा सा लाल काँटा लगा रखा है,
जैसे लम्हों को ज़िन्दगी जी न पायी,
महंगे थे, बस हल्का-सा ही चखा है |


बच्चों जैसी तुकबंदी भी है कहीं कहीं,
हंसी आती है पड़कर, फिर शर्म आ जाती है,
चार-छह मुक्तक हैं, अनभेजी चिठ्ठी जैसे,
क्या लिखा है , ज़िन्दगी बूझ न पाती है |


कुछ सुस्त मिसरे, भोन्दु से मतले हैं,
गीदड़ से शेर हैं, अधमरी एक ग़ज़ल है,
गीत लिखने की कोशिश दम तोड़ गयी,
कहीं गुबार सा निकले हर्फों की दलदल है |


अब पौनी डायरी भर चुकी है, ऐसे ही,
ज़िन्दगी बाकी पन्ने संभल कर भरती है,
ज्यादातर तो, आधी-अधूरी छूटी हैं जो,
वही कवितायेँ पूरा करने की कोशिश करती है |

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

शिकायतें




                                                                    शिकायतें 



कविता -
ब्याह के पैंतालीस सालों बाद अब हम दोनों एक साथ अनिश्चित अवधि के लिए घर से निकले थे । थोड़ा सा जीवन खुद को तैयार करने में निकल गया और बाकी का सारा उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने में। स्वयं को समझने और टटोलने का  पूरी तरह समय ही नहीं मिला। बहुत बार चुराया थोड़ा थोड़ा लेकिन उसमें ग्लानि इतनी थी कि हर बार प्रयास अधूरा ही रह जाता था। 
इस बार इन्होंने कहा था, 'चलो, जिंदगी जीने चलते हैं।'
  
पिछले वर्ष नौकरी से रिटायर हुई तो रमेश ने भी बिजनेस पूरी  तरह बेटों को सौंप दिया। सत्तर के हो गए थे। मैं तो कई सालों से कह रही थी पर वो कहते थे, 'जब तुम घर पर रहोगी तभी छोड़ूँगा। तुम्हारे बिना अकेला क्या करूँगा।'

घर में सभी कामकाजी हैं। बेटे  रमेश के साथ बिजनेस देखते हैं ।  बड़ी बहू मेरी तरह टीचर है और छोटी बैंक में नौकरी करती है।बेटी अपने घर की हो चुकी है।

मैंने मथुरा में गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करने की इच्छा जाहिर की तो रमेश तुरंत मान गए। मुझे बाद में लगा कि शायद मैंने उनके साथ अन्याय कर दिया। कहाँ चल पाएंगे ये सात कोस नंगे पैर? उन्होंने कहा, 'तुम हो न साथ। चल लेंगे  धीरे धीरे। हमें कौन सा लौटने की जल्दी होगी |'

परिक्रमा के शुरू के दो कोस मैं उनके साथ चली। बहुत धीरे-धीरे चल पा रहे थे वो। 

'तुम चाहो तो कुछ दूर अपनी रफ्तार से चल लो। आगे कहीं बैठ कर मेरा इंतज़ार कर लेना।' उन्हें पता नहीं क्यों लगा  कि मैं सहज नहीं हूँ। 
मैंने मना किया तो उन्होंने कहा, ' तीर्थ में थोड़ा एकांत होना चाहिए। तब ही तो मन ईश्वर से जुड़ पाएगा। ऐसे तो हम एक दूसरे में ही उलझे रहेंगे। तुम चलो, मैं आ रहा हूँ। बस परिक्रमा मार्ग पर ही रहना।'

मैं चल दी। उनकी ज्यादातर बातें मान ही लेती हूँ मैं। अकेले होते ही मन ख्यालों का हो गया।

मेरे ख्यालों की पुड़िया में जैसे राख भरी थी। खोलते ही आँखों में आ पड़ी। सब धुधंला हो गया। मन अतीत की पोथी खोल पढ़ने लगा था।

सोलह साल की थी जब रमेश से मेरा विवाह हुआ था। नौ वर्षों का अंतर था हम दोनों में।
बस फोटो दिखाया था माँ ने। मेरी मर्जी  नहीं  पूछी थी। मैं नासमझ थी। एक दो सहेलियों की शादी हुई थी।उनकी बातें सुनकर मुझे भी शादी का शौक  तो था। रमेश सुन्दर थे। आयु के एक दशक के अंतर के प्रभाव समझने लायक बुद्धि नहीं थी मुझमें। सोलह की उम्र में शादी का शारीरिक पहलू ही समझ आता है। सहेलियों के वर्णन याद करके मेरे  शरीर में गुदगुदी होने लगती थी।
रमेश कुछ ज्यादा ही परिपक्व थे। नौ लोगों के परिवार में वे अकेले थे जो नियमित आय वाले थे । इनके पिताजी की हर दो महीने बाद नौकरी छूट जाती थी। फिर तीन चार महीने घर पर पड़े रहते थे। 
रमेश मेरी कल्पनाओं वाले पति जैसे नहीं थे। प्यार था, ख्याल बहुत ज्यादा था पर चुहलबाजी, शरारत, छेड़खानी, हँसीं-मजाक नहीं था। 
मैं उनके साथ खेलना चाहती थी । वो अपनी उम्र से भी पाँच वर्ष बड़े थे। मैं उनके प्यार की डोर पर पतंग बन उड़ना चाहती थी। उन्हें पतंग उड़ाने का चाव ही नहीं था।  वो मुझे गोद में उठा कर चल रहे थे जबकि मैं उनका हाथ पकड़ कर चलना चाहती थी। मुझे भर रहे थे वो पर मैं  भीगना चाहती थी। वो बहुत कम बोलते थे। मैं उदास रहती थी। मुझे उनमें पति कम व पिता अधिक दीखता था |

ग्यारहवीं का  रिजल्ट आने से पहले ही सगाई हो जाने का मतलब माँ-बाप की लड़की को आगे पढ़ाने की जिम्मेदारी खत्म। 
शादी के दो महीने बाद ही उन्होंने कहा था, 'कविता, मैं चाहता हूँ कि तुम आगे पढ़ो। मैं तो पढ़ नहीं पाया पर हम दोनों में से एक तो पढ़ा- लिखा होना चाहिए।'

मैंने न चाहते हुए भी उनकी इच्छा का सम्मान किया। उन्होंने मुझे बी.ए. कराया फिर बी.एड. और फिर नौकरी। घर में बवाल मच गया था उनके इस फैसले से। परंतु ये टस से मस न हुए। मेरी दो ननदें ब्याह चुकी थीं। तीसरी कालेज में पढ़ रही थी। चौथी के साथ, रमेश ने मुझे भी दाखिला दिला दिया। 

बाहर वाले जब मेरे सास-ससुर को इस बात के लिए सराहते थे तो वे इसका सारा श्रेय अपनी जेबों में भर लेते थे और घर पर आए दिन कामकाज को लेकर कलह करते थे। बिना योगदान के तारीफें लूटने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया और मेरी शिक्षा के रास्ते में रोड़े अटकाने में कोताही भी नहीं बरती। 

कुछ महीनों बाद उन्हें दादा-दादी बनने का भूत सवार हो गया। रमेश ने निर्णय सुना दिया कि बच्चा तो मेरी नौकरी लगने के बाद ही होगा । इस पर उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया। जब रमेश ने धमकी दी, ' यदि आप ऐसा ही करते रहे तो मैं अलग हो जाऊँगा।' तब उनकी कोशिश बंद हुई।

बी.एड. करते ही मेरी सरकारी नौकरी लग गई। मैं वैचारिक रूप से अधिक परिपक्व हो गई थी। शिक्षा और आयु का मिला-जुला प्रभाव था। परंतु रमेश के साथ अब भी वैचारिक सामंजस्य नहीं था। हम और भी कम बात करते थे। 

अड़तीस वर्ष की नौकरी में तीन बार मेरा मन फिसला। मैं दूसरे पुरुषों की ओर आकर्षित हुई। बातचीत हुई। एक दो बार उनके साथ बाहर भी गई पर चरित्रहीन होने से पहले ही संभल गई। बच्चे हुए और पता ही नहीं चला कब बड़े हो गए।  जीवन व्यस्त हो तो  कम जिया जाता है। बस फिर खुद के बारे में सोचने की फुर्सत नहीं मिली। उनकी शादियाँ हुईं। बेटे-बहुओं  और बेटी-दामाद के आपस के सामंजस्य को देख खुशी तो होती थी पर अपना अधूरापन पहले से ज्यादा परेशान करता था। वो जलन नहीं थी, बस टीस थी। असंतुष्टि की टीस। 
जैसे उनका परिवार उनकी जिम्मेदारी था, शायद वैसी ही मैं थी। लदे हुए आदमी पर एक और बोझ, एक अतिरिक्त बोझ। उन्होंने नहीं कहा पर मुझे ऐसा ही लगता था। 

हमारे बीच कभी कोई बड़ा झगड़ा नहीं हुआ। मन-मुटाव नहीं  हुआ। बहस भी शायद ही कभी हुई हो। हम एक दूसरे से कभी बहुत देर तक रूठे नहीं रहे क्योंकि न उन्होंने और न ही मैंने, गलती मानने में देर नहीं लगाई। हम कभी अलग-अलग नहीं सोए। फिर भी एक अधूरापन लगता था।


रमेश-

कविता कुछ गुमसुम है। किसी गहरी सोच में डूबी है शायद। पीछे मुड़कर देख भी नहीं रही है। जैसे भूल ही गई है कि मैं भी साथ हूँ। आवाज़ दूँ उसे? नहीं। कुछ देर उसको उसके साथ ही रहने देता हूँ। मिल तो जाँएगें ही हम।

पता नहीं कितने सालों बाद घर से निकले हैं हम एक साथ। जब उसकी छुट्टियाँ होती थी तो मुझे फुर्सत नहीं होती थी।

इस तरह बेफिक्र होकर तो पहली बार निकले हैं। सारे काम खत्म कर लिए हैं इसलिए घर लौटने की चिंता भी  नहीं है।

उसकी उदासी का कारण जानता हूँ मैं। बहुत कोशिश की मैंने कि उसके साथ हमउम्र बन जाया करूँ पर ऐसा हो नहीं पाया। सात भाई-बहनों में सबसे बड़ा लड़का हँसी ठिठोली और शरारतें भूल ही जाता है। उसे न चाहते हुए भी वक्त से पहले बड़ा हो जाना पड़ता है। मेरी जीवन की सीमितता का खामियाजा भुगता है कविता ने। मैं उसकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया लेकिन उसने मुझे कभी निराश नहीं किया।


याद है न इससे पहले जिस लड़की से बात चली थी उन्होंने क्या कहकर मना कर दिया था। 'ये अपने परिवार को खिलाएगा या हमारी बेटी को?' इसलिए तो मैंने कविता को उसके बराबर का बना दिया। शायद उस पढ़ी-लिखी लड़की को  दिखाने के लिए।


बजाय अपनी परिपक्वता की उंगली थमाने के यदि मैं उसके बचपने का हाथ थाम कर चलता तो क्या वो खुद या हमारा परिवार उस स्तर पर पहुंच पाता जहाँ हम आज हैं?

मैंने उसका इस्तेमाल नहीं किया पर शायद उसे ऐसा ही लगता है। साठ पार कर गई है  लेकिन है अभी भी वैसी ही सोलह साल की। जानता हूँ बहुत शिकायतें हैं उसे मुझसे। पता नहीं जीते जी दूर भी कर पाऊँगा या नहीं। हमेशा यह ही सोच कर संतोष करता रहा हूँ कि नाराज बेशक रही हो पर उसने कभी मेरी परेशानियाँ बढ़ाई नहीं। कहाँ जी पाता मैं सत्तर बरस यदि वो झगड़ालु होती।


रिश्तों में एक दूसरे का नजरिया समझना  बहुत जरूरी होता है | यदि आप अपने नज़रिए से सब कुछ मापते रहे, तो ग़लतफ़हमी और शिकायतें तो रहेंगी हीं | चीज़ें हमेशा वैसी नहीं होती जैसी हमें  दिखती हैं | जो दीखता है उसके पीछे जो है वो देखना कहीं जरूरी होता है | ऐसा न करने से परेशानी हमें भी होती  है और दूसरे को भी |  


कविता -

काफी आगे निकल आयी थी | मन थका हो तो शरीर भी जल्दी थक जाता है | मैं एक बैंच पर बैठ गयी | मन का तूफ़ान अभी शांत नहीं हुआ था |


रमेश लगभग आधे घंटे बाद पहुँचे | थकावट उनके चेहरे पर साफ़ दिख रही थी | मैंने उन्हें पानी दिया | दस  मिनट तक वो कुछ नहीं बोले |



'कुछ परेशान हो | कुछ कहना चाहती हो?' उन्होंने चुप्पी तोड़ी |
'विवाह क्या एक दूसरे की जरूरतें पूरा ककरने का अनुबंध मात्र होता है?' मैंने शून्य में ताकते हुए पुछा |

'नहीं, एक दूसरे को संवारने की चुनौती होता है'

मैं उन्हें देख रही थी। कहना चाहती थी, 'फिर तो बहुत बड़ा अहसान कर दिया तुमने मुझ पर' पर कह नहीं पाई।

'मैं ऐसा सोचता हूँ' उन्होंने कहा।

'मैं आपको कैसे संवार सकती थी?'

'अरे! कैसे संवार सकती थीं पूछती हो। संवारा तुमने मुझे।'

'कैसे?' मैंने हँस कर कहा।

'मेरी जिम्मेदारियों के आड़े न आकर। कभी शिकायत न करके।' उन्होंने मेरा ह हाथ में ले लिया, 'सोचो, यदि तुम मुझे उन्हें पूरा करने से रोकती या शिकायत करती या वैसे ही अड़ंगे अड़ाती जैसे मेरे माता-पिता ने तुम्हारी पढ़ाई के लिए अड़ाए थे तो क्या हम इतना सुखमय जीवन जी पाते। नहीं। मैं तनाव में रहता और शायद अब तक निकल चुका होता। तुमने कभी उसकी शिकायत नहीं की इसलिए मैं तुमसे जुड़ा रहा। तुम मुझे रोकती तो शायद, शायद क्या पक्का, मैं उनके और पास चला जाता और तुमसे दूर। जानता हूँ तुम्हारे प्रति उनका व्यवहार कभी ठीक नहीं रहा । फिर भी तुमने मुझे नहीं रोका इसलिए तुम मेरी दृष्टि में महान बनी रहीं। मर्द न कविता, पेड़ जैसा होता है। कई शाखाओं को पालना होता है उसे, बराबर बराबर। वो चाहे भी तो उन शाखोंको काट नहींसकता। पत्नि उस पेड़ से लिपटी बेल जैसी होती है।'

'यदि कोई उन शाखों को काट डाले तो कितने  फल आएंगे उस पेड़ पर और कितनी छाया दे पाएगा वो पेड़?'

'ठीक कह रही हो। कितना सही सोचती हो तुम।'

'मुझे आज सब जो मान देते हैं न, वो मैंने नहीं कमाया, तुमने कमा कर दिया है मुझे। वो तुम्हारा है। ऐसे संवारा है तुमने मुझे। तुमने मुझे वैसा ही रहने दिया जैसा मैं था या हूँ | कभी बदलने की कोशिश नहीं की | करतीं तो भी मैं इस रिश्ते में रहता पर शायद मन मार कर | फिर हमारा ये सम्बन्ध इतना सुखद न होता शायद |'

'मैं जैसे यशोदा और मेरा जीवन मानो कान्हा-ऐसा लगता है मुझे। पास है पर मेरा नहीं है।' मैंने गोवर्धन पर्वत की ओर देखते हुए कहा।

वे बोले, 'देवकी जैसा होता तो कैसा लगता?'

मैंने उनकी ओर देखा। निरुत्तर थी मैं।

'समय तो हमेशा कंस जैसा ही होता है सभी का, कविता। हर कहानी थोड़ी सी पात्र लिखते हैं, थोड़ी कहानी खुद लिखती है और बाकी की सारी वक्त लिखता है।'

मैं उनके चेहरे की झुर्रियों में उलझे संयम को  माप रही थी। वो मेरी आँखों में गोते खाते प्रश्न  ढूंढ रहे थे।

'हमेशा मुझे यही बात अखरती थी कि तुम कभी शिकायत क्यों नहीं करतीं। बहुत ज्यादा करती तो भी शायद खलता मुझे।'
मैं हल्का सा मुस्कुरा दी। शायद व्यंग्यात्मक  लगा उन्हें। पर जल्दी से प्रतिक्रिया देने की आदत नहीं थी उन्हें।

'तुम्हें आगे पढ़ने और नौकरी करने देने के पीछे मेरी मंशा खुद को आर्थिक सुदृढ़ता देने की नहीं थी। मैं बस यह चाहता था कि तुम सारे दिन घर में बंद रहकर बस ताने ही न सुनती रहो। तुम्हारा अपना दायरा हो।' वो बोलते रहे, मैं सुनती रही। पहली बार इतना बोल रहे थे वो।

'देख लो, उम्र की बाउंड्री तो तुम भी पार कर चुकी हो और मैं तो बोनस जी रहा हूँ। कब हमारा साथ छूट जाए प तुम जानती हो न मैं। बस अब अपने लिए जीते हैं। तुम खूब शिकायत करना, मैं सुनुगाँ। पतंग बन उड़ तो पाओगी नहीं तुम और न ही मैं उड़ा पाऊँगा। पर छत पर शाम की चाय तो साथ पी सकते हैं न हम। और फिर वहीं देर तक बैठे रहकर चाँद को चिड़ाएँगे। देखना, सारे के सारे तारे हमारा ही साथ देगें और हवा भी खूब हँसेगी।'

मैंने उनके कंधे पर सिर टिका दिया । वो मेरे गालों पर थपकी देने लगे। उनकी बातों की दवा ने पैंतालीस वर्षों की पीड़ा मिटा दी थी। शायद इनसे मेरी शिकायतें फ़िज़ूल ही थीं | ये तो नहीं कहूँगी की सारी की सारी एक दम से दूर हो गईं थीं, पर हाँ, मन शांत था अब |

रविवार, 17 जुलाई 2016

अपने नाम एक खत


विनम्र निवेदन,


कृपया इसे मेरे अथवा किसी और व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से जोड़कर न पढ़ें | इसमें आये सभी प्रसंग एक सामान्य व्यक्ति के जीवन को दृष्टि में रखते हुए लिखे गए हैं | स्वयं को इससे जोड़ने का प्रयत्न  करें | आप इससे जुड़ पाए या यह खत आपको खुद से जोड़ पाया तभी मैं अपने प्रयास को सार्थक समझूंगा |





                                                                   अपने नाम एक खत






प्रिय प्रतिबिंब ( बड़ा सोचने के बाद तुम्हारे लिए यह नाम चुना है ),

बहुत दिनों से सोच रहा था तुम्हें एक पत्र लिखूँ सो आज लिख रहा हूँ क्योंकि कल तुम कुछ ज्यादा ही मायूस थे। खुदकुशी की भी सोच बैठे थे एक बार तो। इसलिए आज ये प्रवचन जरूरी है तुम्हारे लिए। इसे बंद कमरे में मत पढ़ना बल्कि किसी बगीचे में हरे-भरे पौधों के लहराते पर्दों और ठंडी हवा की खुशनुमा बयार  के बीच बैठ कर पढ़ना। आसमान की खुली छत से परिंदों को ताका-झांकी करने देना | 
शायद जो मैंने लिखा है उसे ज्यादा महसूस कर पाओ।

चलो, अपने बचपन में चलते हैं। याद है न, दादाजी ने बताया था कि तुम्हारे परदादा ने कैसे मन्नत मांगी थी तुम्हारे होने के लिए क्योंकि उन्हें स्वर्ग-नसेनी चढ़ना था। तो यार, हम तो खास हुए न, थोड़े से ही सही।

और, वो जब लंबी गैलरी में कतार में बने हुए छोटे-छोटे घरों में से एक में हम भी रहे थे कुछ दिन, वहीं जहाँ तुम घुटने चलना सीखे थे। बराबर वाले कमरे में एक बुजुर्ग कृष्ण भगवान की पूजा करते थे। तुम घुटनों पर पहुँच गए थे वहाँ और उनके सामने बैठकर भोग खाने लगे थे। जब उन्होंने आँखें खोलीं तो भ्रम में आ गए थे कि उन्हें भगवान ने दर्शन दिए हैं। माँ ने कितनी बार ये कहानी सुनाई है। तो, हुए न हम खास, थोड़े से ही।

हमारे यहाँ सात साल में मुण्डन होता है न और दादाजी तुम्हारे बाल कटने देते नहीं थे। तुम गोल -मटोल भी थे | इसलिए रामलीला वाले तुम्हें छोटे रामचंद्र जी बना देते थे। और, वो रायॅल टेलर, तुम्हें इतना प्यार करता था कि उसके पास कोई भी पेंट बनने के लिए आती थी तो उसमें से कपड़ा बचा कर तुम्हारा निकर  बना के जबरदस्ती घर प दे जाता था। यार, बचपन से ही लोग फैन थे हमारे। तो, खास थे न हम।

जानते हो, जीवन बचपन से क्यों शुरू होता है? जिससे बचपन में जो सब  लाड़ लड़ाते हैं, प्यार दिखाते हैं, ख्याल रखते हैं, जिद पूरी करते हैं और सिर पर बिठा कर रखते हैं उससे तुम्हें अपनी और जीवन की अहमियत शुरू में ही समझ आ जाए। बेवकूफ होते हैं जो नहीं समझते। अबे किसी के मरने से किसी को क्या फर्क पड़ता है यार। अब तो शमशान में भी धूप का चश्मा लगा के जाते हैं लोग।

और, वो जब तुमने जहरीले फूलों का नाश्ता कर लिया था, साथ में बहन को भी कराया था, बस पारी बीच में छोड़ कर चल ही दिए थे तुम। डाक्टर ने भी हाथ तान दिए थे। सोचो, किसने तुम्हें बचाया और क्यों? क्योंकि तुमसे कुछ खास कराना चाहता था। इस मुगालते में मत रहना कि फिर बचाएगा। इस बार बेटा लात और पड़ेगी जाते जाते। बिलबिलाते बिलखते हुए खिसकोगे ऊपर को। 

कभी बेचारे और कभी महान बनने का नाटक बहुत करते हो तुम। मेरे सामने तो नंगें ही रहोगे हमेशा। क्या रोना रोते हो कि मैं सबको इतना खुश रखने की कोशिश करता हूँ पर मेरे बारे में कोई नहीं सोचता। भईया, अपनी मर्जी से करते हो। किसी ने कहा नहीं तुमसे। कोई तुम्हारे जितना परोपकारी नहीं तो रोओगे तुम? कोई बदला चुकाएगा इस उम्मीद से करते हो तो मत किया करो। तुमने क्या अपने माँ- बाप के किए का बदला चुकाया है? तुम्हें  खुश रखने के लिए ही पैदा नहीं हुए हैं लोग। अबे, आजकल लोगों के पास अपनी परेशानियाँ इतनी सारी हैं कि उनसे निबटें या तुम्हें सुलटें।

याद है स्कूल में कार वाली अमीर लड़की पर लट्टू हो गए थे तुम। उसने घास भी नहीं डाली थी। और फिर वो कालेज में भी धोखा खाया था। हर बार जोर से गिरे। दिल टूटा पर संभले न। अब क्या उससे भी बड़ी आफत आ गई।

 गलती तो सबसे होती है यार। मैं हजार किस्से जानता हूँ जब तुमने बहुत बड़ी गल्तियाँ की और खुद को फटाफट माफ कर दिया । फिर दूसरों से भी उम्मीद की कि वो तुम्हें एक और मौका दे दें।
याद है जब पिताजी ने चौपाल वाले प्लाटॅ का भुमि पूजन कराया था और चाँदी के नागों का जोड़ा सवा रुपये के साथ वहाँ गाड़ा था, तुम वहाँ से वो सवा रूपये निकाल लाए थे और माँ को बता भी दिया था। पिताजी को दोबारा पूजा करानी पड़ी थी। उन्होंने तुम्हें कुछ भी नहीं कहा था। 
और भी बहुत सारी गिना सकता हूँ पर  तुम खुद याद कर लो तो ज्यादा अच्छा रहेगा।

बात सिर्फ इतनी सी है कि न्यायाधीश मत बनो यार। ऊपरवाले को भी कुछ करने दोगे या नहीं।

इतनी उम्र तो जी चुके हो कि जीवन क्या है समझ चुके होंगे। यदि कहो कि नहीं समझे तो झूठ होगा। एक बार पढ़ा था न हमने -

                                                               "जीवन तो इति न अथ है
                                                                 जीवन एक साधना पथ है"


अब तो समझ आ गया होगा कि यह साधना पथ क्यों है। तुम्हारे प्रत्येक संघर्ष में साझीदार रहा हूँ। जानता हूँ कि तुम्हें छोटी हो या बड़ी, कोई भी सफलता सरलता से नहीं मिली। असफल भी रहे हो, गिरे भी हो, टूटे भी हो पर जुड़ भी तो गए हो फिर । बहुत नहीं पर कुछ उपलब्धियाँ तो हैं न तुम्हारे नाम। मुझे पता है कि तुम उनसे संतुष्ट हो किन्तु फिर भी कह रहा हूँ क्योंकि चाहता हूँ कि उन्हें सर्वोपरि रख कर अपने लिए सारी खुशी वहीं से दुह लो। उन्हें रिश्तों में मत ढूँढों। नहीं मिलेंगी। चाहे वो प्यार हो, शादी हो, माँ-बाप के साथ हो, भाई-बहन के साथ हो, बच्चों, दोस्तों या दूसरे रिश्तेदारों के साथ। सबकी अपनी बुद्धि होती है और सबके अपने दृष्टिकोण। समझगुरू मत बनो।

तुममें सबसे अच्छी बात पता है क्या है? ये जो तुम शोर मचाती भीड़ में भी अकेले होकर खुद को खंगालते हो न बार-बार, बस ये ही है वो बात, जो तुम्हें असाधारण बनाती है। असाधारण इसलिए क्योंकि उस समय तुम अपने व्यवहार, अपने शब्दों और अपने आप को ज्यादा तौलते हो और दूसरों को कम। जब से तुमने ऐसा करना शुरू किया है, तुममें परिवर्तन हुआ है।

हाँ, लगातार, बिना रुके मुझसे बातें करने की तुम्हारी आदत मुझे बस उस समय खिजा देती है जब तुम शिकायत करते हो कि कोई तुम्हें समझता नहीं। अरे भाई! किसी ने तुम्हें समझने का ठेका लिया है क्या? न तो समझने का लिया है और न समझाने का। सबको उनकी सोच और समझ के साथ जीने दो। ये उनका अधिकार है। अच्छा-बुरा उनके साथ। शायद तुम्हें इस बात की चिंता रहती है कि उनकी गलत समझ का परिणाम तुम्हें भी भुगतना पड़ेगा। 

वो तो भुगतना पड़ेगा ही भाई। वो तुम्हारे जीवन का हिस्सा हैं। वो भी तो सहते होंगे तुम्हारी सोच और तुम्हारी समझ। तुम भी महा बुद्धिमान गणेश या फिर चाणक्य के अवसाद से तो पैदा हुए नहीं हो।

और हाँ, ये सम्मान और अपमान क्या होता है यार? जब तक हम अपने में विश्वास करते हैं, कोई हमारा 
अपमान नहीं कर सकता | और सम्मान, सच पूछो तो अधिकांशतः झूठा होता है| दिखावा, छलावा , मतलब के लिए किया गया ढोंग | सच्चा सम्मान करने वाला आदमी तुम्हें जताएगा ही नहीं कभी कि वो तुम्हारा कितना सम्मान करता है | याद है न स्कूल में मिश्रा सर क्या कहा करते थे -

                                                " भूले भटके कभी तो मेरा नाम लिया जायेगा 

                                              आंसू जब सम्मानित होंगे, मुझे याद किया जायेगा "

कम बोला करो। आजकल रिश्तों की सड़कें इतनी संकरी हो गईं हैं कि उन पर जबान को बेलगाम दौड़ाया नहीं जा सकता। वो तो बस कुछ दोस्तों के साथ ही संभव हो पाता है और ऐसे दोस्तों की प्रजाति विलुप्त होने वाली है जल्दी। अब इसमें क्या तुम खुशनसीब नहीं हो कि तुम्हारे पास ऐसे दोस्त हैं?  गिने-चुने ही सही पर हैं तो।

अपने अहम को तो तुमने बहुत पहले ही पीछे की जेब में रख लिया था। अब अच्छा होगा उसे निकाल कर बाहर फेंक दो। और भावनाएँ छिपाना सीखो। घर में हो न हो , मन में एक तहखाना जरूर होना चाहिए। भावनाओं की पोटली बाँधों और फेंक दो उसमें। सोने से भी मंहगीं हैं आजकल। हर जगह नुमाईश करोगे तो डकैती तो पड़ेगी ही।
अपनी ढपली बजाते रहो और बोलते रहो-

                                              रोने वाले रोते रहेंगे, पर हम तो साले ऐसे ही रहेंगे।

समझे मियाँ परेशां खान। चलो, खुद पर तरस निचोड़ना बंद करो। उठो, अब क्या इस बगीचे में ही बैठे रहोगे।

गुरुवार, 14 जुलाई 2016

माँ का क़र्ज़






माँ का क़र्ज़ 




बढ़ा आदमी बन गया था बेटा
टाई की गाँठ ने
दंभ, सिर में ही रोक रखा था।

माँ तेरा कर्ज़ चुका दूँगा
बता क्या हिसाब है
कहा-सुनी में कह गया था।


नौ महीने की पीड़ा
जापे का दर्द और चीरा
जाग के काटी रतियां
लोरियाँ और थपकियाँ
पता नहीं क्या-क्या है
सारा याद नहीं रहा है |


लेकिन सीने के दर्द से लड़ते
ऐंठती कमर को डपटते
बेटा तेरे सपने सिये हैं।
मेरा छोड़, हटा दे
मशीन के पहिये से
तेरे लिए कई कर्ज़ लिये हैं
उसी का चुका दे।


उसका ब्याज आँखों में,
मेरी उखड़ी साँसों में
थोड़ा-सा जोड़ों में
पैरों की ठेकों में
जमा हो गया है।
रोज़ होते हैं तकादे
हो सके तो जल्दी से चुका दे।


नालायक, माँ की मजदूरी का
हिसाब लगाने लगा,
रकम निकल कर आई
तो सिर चकराने लगा।

वो ब्याज चुकाने को
उसकी कमाई काफ़ी नहीं थी
माँ से नज़रें मिलाने को
हिम्मत भी बाकी नहीं थी।


माँ ने कई बार
बिन माँगे दी है माफी.
इस बार भी मिल जाएगी
पर पचास रुपये में
कबाड़ी को बेची थी,
वो मशीन कहाँ से आएगी।

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

किन्नर

                                                                                   
                                                                                     

                                                                               किन्नर 


उन्नीस साल का था, अधपका, कम स्याना और दबा-दबा, जब पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करनी पड़ी। शायद परिस्थितियों ने अल्हड़पन निगल लिया था। चुप-चुप रहता था क्योंकि किसी को बताने के लिए कुछ था ही नहीं। तभी तभी सपनों की तेरहवीं की थी। शक्ल मातम मनाती रहती थी।

अशोक विहार के एक स्कूल में लैब-एटंडेंट के पद पर नौकरी लगी थी, लगी क्या थी पिताजी ने किसी से कहकर लगवाई थी। मल्का गंज से ११५ नम्बर बस पकड़ता था। दो रुपये का टिकट जाते हुए और दो रुपये आते हुए। माँ दस रुपए रोज़ देती थी, 'खर्च चार ही करना । जेब खाली नहीं होनी चाहिए।' मैं यह सोचते हुए घर से निकल जाता था कि जाने कौन सी मुसीबतें होंगी जिनका सामना मैं छह रुपयों के साथ कर लूँगा।

नौकरी को एक हफ्ता हो गया था। एक सुबह मायूसी का बस्ता टाँगे मैं वहीं मल्का गंज के बस स्टॉप पर खड़ा था।दो किन्नर भी वही खड़े थे बस के इंतज़ार में । दो बार पहले भी देखा था उन्हें। बस आई। मैं टिकट लेकर पीछे वाली सीट पर बैठ गया। किन्नर वहाँ पहले ही बैठे थे। मेरे बाद उनमें से एक टिकट लेने कंडक्टर के पास गया, सौ रुपये का नोट लेकर। 
'टूटे दे। छयानवे कहाँ से वापस दूँगा तुझे।' डी.टी.सी. के कंडक्टर किसी और ही मिट्टी के बने होते हैं।
'टूटे न हैं,' किन्नर सहमी आवाज़ में बोला।

'नीचे उतर लो फेर,' कहकर कंडक्टर ने सीटी बजा दी। मुझे पता नहीं क्या हुआ, बिना अपनी जेब का गणित किए खड़ा हुआ और चार रुपये कंडक्टर की ओर बढ़ा दिए, 'टिकट दे दीजिए।' शायद इसलिए क्योंकि बचपन से सुनता आया था कि हीजड़ों की दुआएँ खाली नहीं जाती। दुखों से घिरा आदमी सुखों से ज्यादा दुआओं की तलाश में रहता है। किन्नर मुझे देखता रहा। 

सीट पर वापस आकर किन्नरों ने आशीषों की झड़ी लगा दी। चार रुपये में चार सौ दुआएँ खरीद ली थीं मैंने।

अगले दिन किन्नर बस स्टॉप पर मिले । मेरे पहुँचते ही पचास का नोट मेरी तरफ बढ़ाया, 'ले भैया, रख ले।' मैंने नोट नहीं पकड़ा।

'खुले नहीं हैं मेरे पास। चार ही दे दीजिए बस।'

'वापस नहीं माँग रही, भैया। सारे रख ले।'

उसने मेरा हाथ पकड़ कर उठाया, नोट थमाने के लिए । मैंने मुठ्ठी बाँध ली।

'आपकी दुआएँ कहाँ से लौटाऊँगा मैं? देने हैं तो बस चार ही दीजिए।' मैंने कहा। दोनों किन्नरों ने बारी बारी मेरी बलाएँ ले लीं।

'बस में देती हूँ या फिर कल।' कहकर उन्होंने फिर मुझे ढेरों आशीर्वाद दे डाले।

दिन बीतने लगे। किन्नर अक्सर मिलते थे। रोज़ बलाएं लेते थे। कई बार लाख मना करने पर भी मेरा टिकट ले लेते थे। दस बारह दिन में कोफ्त होने लगी थी मुझे। शायद उनके व्यवहार से कम और घूरते फुसफुसाते लोगों से ज्यादा परेशानी थी मुझे। जब मेरे पास टाईम होता तो दूर खड़े होकर उनके चले जाने का इंतजार करता। फिर दूसरी बस पकड़ता था।
तनख्वाह का दिन आ गया। माँ ने हिसाब समझा दिया था । अठारह सौ नवासी रुपये  तनख्वाह मिलेगी। अठारह सौ पचास रुपये  निकालना । पंद्रह सौ घर में देना और साढ़े तीन सौ खुद रख लेना। अगले महीने किराया नहीं दूँगी मैं। और हाँ, पहली कमाई है। आते समय आजादपुर से लड्डु-गोपाल के वस्त्र और भोग के लिए कुछ लेते आना।'

बैंक का एक्सटेंशन काउंटर स्कूल में ही था। कैशियर ने सारे  पचास के नोट दे दिये थे। नोटों की इतनी मोटी तह सहेज कर जेब फूला नहीं समा रही थी। 

छुट्टी हुई तो आजादपुर जाने के लिए मैंने 235 रूट नंबर की बस पकड़ी। प्रेमबाड़ी पुल पार करते ही बस में साथ खड़े लड़के ने जेब पर हाथ मारा। मुझे पता चल गया और मैं अलग हट कर खड़ा हो गया। शालीमार बाग पार हुआ तो उसने फिर कोशिश की। मैं चौकन्ना था। मैंने उसकी कलाई पकड़ ली।

'क्या बात है?' मैंने उसे घूरते हुए पूछा और जेब में हाथ डालकर नोटों को ढक लिया।

'क्या?' उसने पलटकर कहा, बड़ी लापरवाही से।

'जेब पर हाथ क्यों मार रहा है बार-बार। जेबकतरा है?'

उसने मेरे कंधे को धक्का दिया, 'जेबकतरा किसको बोला । हैं, जेबकतरा किसको बोला?'

'तुझे ही बोला है। जेब पे हाथ मार रहा है बार -बार,' मैंने आसपास खड़े लोगों की तरफ देखते हुए कहा । कोई कुछ नहीं बोला। बस आजादपुर पहुँच ही गई थी।

'चल नीचे आ जा। अभी तेरी गर्मी निकालता हूँ।' जेबकतरा जानता था कि मुझे वहीं उतरना है। शायद टिकट लेते समय सुन लिया था उसने। मैं जान चुका था कि  वो अकेला नहीं है क्योंकि मुझे पीछे से भी कोई धक्का दे रहा था। मुझे सिर्फ अपनी पहली कमाई की चिंता थी। पिटना तो मेरा तय था। 

आजादपुर बस स्टाप पर उतरते ही मेरे चारों तरफ घेरा बन गया। मैंने तो दो की ही उम्मीद की थी पर वो पाँच लोग थे। बस के स्टॉप से रवाना होते ही मुझे बस से उतारने वाले जेबकतरे ने मुझे थप्पड़ जड़ दिया।

'हीरो बन रहा था न। कर क्या करेगा, जेबकतरा ही हूँ मैं।' मेरा एक हाथ अब भी मेरी जेब में ही था। दूसरे हाथ से मैंने उसकी ठोड़ी पकड़ ली। लोग तमाशा देखने के लिए इकट्ठे होने लगे थे। मेरी पीठ पर कुछ घूंसे पड़े। एक ने  जेब वाला हाथ भी बाहर खींचा। मैं मदद के लिए चिल्ला रहा था और वो मुझे गालियाँ दे रहे थे। शायद जानते थे कि भीड़ सिर्फ तमाशबीन लोगों की है।

अचानक भीड़ में से आवाज़ आई, 'भैया तू।' आवाज़ जानी पहचानी थी। मैंने मुड़ कर देखा। तीन किन्नर भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ रहे थे।

'क्या हुआ?' किन्नर बोला, 'जेबकतरे हैं न ये?'

मैंने गर्दन हिलाई।

'तू जा भाई। इन्हें हम देख लेंगे।' दूसरा किन्नर बोला ।

पता नहीं कौन सी बस स्टैंड पर खड़ी थी। मैं चढ़ गया। चलती बस से देखा तो जेबकतरों की पिटाई शुरू हो गई थी।

'एक मर्द की रक्षा आज हीजड़ों ने की ' मैं सोच रहा था,'इनका लिंग बनाने में भगवान से गलती जरूर हो गई पर इनका दिल सोने का बनाया है उसने।'

लड्डू -गोपाल के वस्त्र और भोग तो मैंने किंगस्वे कैंप से खरीद लिए पर सच में भोग लगाने का मन तो उन किन्नरों को था जिन्होंने मेरी पहली तनख्वाह और मुझे पिटने से बचाया था।



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