माँ का क़र्ज़
बढ़ा आदमी बन गया था बेटा
टाई की गाँठ ने
दंभ, सिर में ही रोक रखा था।
माँ तेरा कर्ज़ चुका दूँगा
बता क्या हिसाब है
कहा-सुनी में कह गया था।
नौ महीने की पीड़ा
जापे का दर्द और चीरा
जाग के काटी रतियां
लोरियाँ और थपकियाँ
पता नहीं क्या-क्या है
सारा याद नहीं रहा है |
लेकिन सीने के दर्द से लड़ते
ऐंठती कमर को डपटते
बेटा तेरे सपने सिये हैं।
मेरा छोड़, हटा दे
मशीन के पहिये से
तेरे लिए कई कर्ज़ लिये हैं
उसी का चुका दे।
उसका ब्याज आँखों में,
मेरी उखड़ी साँसों में
थोड़ा-सा जोड़ों में
पैरों की ठेकों में
जमा हो गया है।
रोज़ होते हैं तकादे
हो सके तो जल्दी से चुका दे।
नालायक, माँ की मजदूरी का
हिसाब लगाने लगा,
रकम निकल कर आई
तो सिर चकराने लगा।
वो ब्याज चुकाने को
उसकी कमाई काफ़ी नहीं थी
माँ से नज़रें मिलाने को
हिम्मत भी बाकी नहीं थी।
माँ ने कई बार
बिन माँगे दी है माफी.
इस बार भी मिल जाएगी
पर पचास रुपये में
कबाड़ी को बेची थी,
वो मशीन कहाँ से आएगी।
मर्मस्पर्शी!!!!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, स्मृति जी।
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