शिकायतें
कविता -
ब्याह के पैंतालीस सालों बाद अब हम दोनों एक साथ अनिश्चित अवधि के लिए घर से निकले थे । थोड़ा सा जीवन खुद को तैयार करने में निकल गया और बाकी का सारा उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने में। स्वयं को समझने और टटोलने का पूरी तरह समय ही नहीं मिला। बहुत बार चुराया थोड़ा थोड़ा लेकिन उसमें ग्लानि इतनी थी कि हर बार प्रयास अधूरा ही रह जाता था।
इस बार इन्होंने कहा था, 'चलो, जिंदगी जीने चलते हैं।'
पिछले वर्ष नौकरी से रिटायर हुई तो रमेश ने भी बिजनेस पूरी तरह बेटों को सौंप दिया। सत्तर के हो गए थे। मैं तो कई सालों से कह रही थी पर वो कहते थे, 'जब तुम घर पर रहोगी तभी छोड़ूँगा। तुम्हारे बिना अकेला क्या करूँगा।'
घर में सभी कामकाजी हैं। बेटे रमेश के साथ बिजनेस देखते हैं । बड़ी बहू मेरी तरह टीचर है और छोटी बैंक में नौकरी करती है।बेटी अपने घर की हो चुकी है।
मैंने मथुरा में गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करने की इच्छा जाहिर की तो रमेश तुरंत मान गए। मुझे बाद में लगा कि शायद मैंने उनके साथ अन्याय कर दिया। कहाँ चल पाएंगे ये सात कोस नंगे पैर? उन्होंने कहा, 'तुम हो न साथ। चल लेंगे धीरे धीरे। हमें कौन सा लौटने की जल्दी होगी |'
परिक्रमा के शुरू के दो कोस मैं उनके साथ चली। बहुत धीरे-धीरे चल पा रहे थे वो।
'तुम चाहो तो कुछ दूर अपनी रफ्तार से चल लो। आगे कहीं बैठ कर मेरा इंतज़ार कर लेना।' उन्हें पता नहीं क्यों लगा कि मैं सहज नहीं हूँ।
मैंने मना किया तो उन्होंने कहा, ' तीर्थ में थोड़ा एकांत होना चाहिए। तब ही तो मन ईश्वर से जुड़ पाएगा। ऐसे तो हम एक दूसरे में ही उलझे रहेंगे। तुम चलो, मैं आ रहा हूँ। बस परिक्रमा मार्ग पर ही रहना।'
मैं चल दी। उनकी ज्यादातर बातें मान ही लेती हूँ मैं। अकेले होते ही मन ख्यालों का हो गया।
मेरे ख्यालों की पुड़िया में जैसे राख भरी थी। खोलते ही आँखों में आ पड़ी। सब धुधंला हो गया। मन अतीत की पोथी खोल पढ़ने लगा था।
सोलह साल की थी जब रमेश से मेरा विवाह हुआ था। नौ वर्षों का अंतर था हम दोनों में।
बस फोटो दिखाया था माँ ने। मेरी मर्जी नहीं पूछी थी। मैं नासमझ थी। एक दो सहेलियों की शादी हुई थी।उनकी बातें सुनकर मुझे भी शादी का शौक तो था। रमेश सुन्दर थे। आयु के एक दशक के अंतर के प्रभाव समझने लायक बुद्धि नहीं थी मुझमें। सोलह की उम्र में शादी का शारीरिक पहलू ही समझ आता है। सहेलियों के वर्णन याद करके मेरे शरीर में गुदगुदी होने लगती थी।
रमेश कुछ ज्यादा ही परिपक्व थे। नौ लोगों के परिवार में वे अकेले थे जो नियमित आय वाले थे । इनके पिताजी की हर दो महीने बाद नौकरी छूट जाती थी। फिर तीन चार महीने घर पर पड़े रहते थे।
रमेश मेरी कल्पनाओं वाले पति जैसे नहीं थे। प्यार था, ख्याल बहुत ज्यादा था पर चुहलबाजी, शरारत, छेड़खानी, हँसीं-मजाक नहीं था।
मैं उनके साथ खेलना चाहती थी । वो अपनी उम्र से भी पाँच वर्ष बड़े थे। मैं उनके प्यार की डोर पर पतंग बन उड़ना चाहती थी। उन्हें पतंग उड़ाने का चाव ही नहीं था। वो मुझे गोद में उठा कर चल रहे थे जबकि मैं उनका हाथ पकड़ कर चलना चाहती थी। मुझे भर रहे थे वो पर मैं भीगना चाहती थी। वो बहुत कम बोलते थे। मैं उदास रहती थी। मुझे उनमें पति कम व पिता अधिक दीखता था |
ग्यारहवीं का रिजल्ट आने से पहले ही सगाई हो जाने का मतलब माँ-बाप की लड़की को आगे पढ़ाने की जिम्मेदारी खत्म।
शादी के दो महीने बाद ही उन्होंने कहा था, 'कविता, मैं चाहता हूँ कि तुम आगे पढ़ो। मैं तो पढ़ नहीं पाया पर हम दोनों में से एक तो पढ़ा- लिखा होना चाहिए।'
मैंने न चाहते हुए भी उनकी इच्छा का सम्मान किया। उन्होंने मुझे बी.ए. कराया फिर बी.एड. और फिर नौकरी। घर में बवाल मच गया था उनके इस फैसले से। परंतु ये टस से मस न हुए। मेरी दो ननदें ब्याह चुकी थीं। तीसरी कालेज में पढ़ रही थी। चौथी के साथ, रमेश ने मुझे भी दाखिला दिला दिया।
बाहर वाले जब मेरे सास-ससुर को इस बात के लिए सराहते थे तो वे इसका सारा श्रेय अपनी जेबों में भर लेते थे और घर पर आए दिन कामकाज को लेकर कलह करते थे। बिना योगदान के तारीफें लूटने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया और मेरी शिक्षा के रास्ते में रोड़े अटकाने में कोताही भी नहीं बरती।
कुछ महीनों बाद उन्हें दादा-दादी बनने का भूत सवार हो गया। रमेश ने निर्णय सुना दिया कि बच्चा तो मेरी नौकरी लगने के बाद ही होगा । इस पर उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया। जब रमेश ने धमकी दी, ' यदि आप ऐसा ही करते रहे तो मैं अलग हो जाऊँगा।' तब उनकी कोशिश बंद हुई।
बी.एड. करते ही मेरी सरकारी नौकरी लग गई। मैं वैचारिक रूप से अधिक परिपक्व हो गई थी। शिक्षा और आयु का मिला-जुला प्रभाव था। परंतु रमेश के साथ अब भी वैचारिक सामंजस्य नहीं था। हम और भी कम बात करते थे।
अड़तीस वर्ष की नौकरी में तीन बार मेरा मन फिसला। मैं दूसरे पुरुषों की ओर आकर्षित हुई। बातचीत हुई। एक दो बार उनके साथ बाहर भी गई पर चरित्रहीन होने से पहले ही संभल गई। बच्चे हुए और पता ही नहीं चला कब बड़े हो गए। जीवन व्यस्त हो तो कम जिया जाता है। बस फिर खुद के बारे में सोचने की फुर्सत नहीं मिली। उनकी शादियाँ हुईं। बेटे-बहुओं और बेटी-दामाद के आपस के सामंजस्य को देख खुशी तो होती थी पर अपना अधूरापन पहले से ज्यादा परेशान करता था। वो जलन नहीं थी, बस टीस थी। असंतुष्टि की टीस।
जैसे उनका परिवार उनकी जिम्मेदारी था, शायद वैसी ही मैं थी। लदे हुए आदमी पर एक और बोझ, एक अतिरिक्त बोझ। उन्होंने नहीं कहा पर मुझे ऐसा ही लगता था।
हमारे बीच कभी कोई बड़ा झगड़ा नहीं हुआ। मन-मुटाव नहीं हुआ। बहस भी शायद ही कभी हुई हो। हम एक दूसरे से कभी बहुत देर तक रूठे नहीं रहे क्योंकि न उन्होंने और न ही मैंने, गलती मानने में देर नहीं लगाई। हम कभी अलग-अलग नहीं सोए। फिर भी एक अधूरापन लगता था।
रमेश-
कविता कुछ गुमसुम है। किसी गहरी सोच में डूबी है शायद। पीछे मुड़कर देख भी नहीं रही है। जैसे भूल ही गई है कि मैं भी साथ हूँ। आवाज़ दूँ उसे? नहीं। कुछ देर उसको उसके साथ ही रहने देता हूँ। मिल तो जाँएगें ही हम।
पता नहीं कितने सालों बाद घर से निकले हैं हम एक साथ। जब उसकी छुट्टियाँ होती थी तो मुझे फुर्सत नहीं होती थी।
इस तरह बेफिक्र होकर तो पहली बार निकले हैं। सारे काम खत्म कर लिए हैं इसलिए घर लौटने की चिंता भी नहीं है।
उसकी उदासी का कारण जानता हूँ मैं। बहुत कोशिश की मैंने कि उसके साथ हमउम्र बन जाया करूँ पर ऐसा हो नहीं पाया। सात भाई-बहनों में सबसे बड़ा लड़का हँसी ठिठोली और शरारतें भूल ही जाता है। उसे न चाहते हुए भी वक्त से पहले बड़ा हो जाना पड़ता है। मेरी जीवन की सीमितता का खामियाजा भुगता है कविता ने। मैं उसकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया लेकिन उसने मुझे कभी निराश नहीं किया।
याद है न इससे पहले जिस लड़की से बात चली थी उन्होंने क्या कहकर मना कर दिया था। 'ये अपने परिवार को खिलाएगा या हमारी बेटी को?' इसलिए तो मैंने कविता को उसके बराबर का बना दिया। शायद उस पढ़ी-लिखी लड़की को दिखाने के लिए।
बजाय अपनी परिपक्वता की उंगली थमाने के यदि मैं उसके बचपने का हाथ थाम कर चलता तो क्या वो खुद या हमारा परिवार उस स्तर पर पहुंच पाता जहाँ हम आज हैं?
मैंने उसका इस्तेमाल नहीं किया पर शायद उसे ऐसा ही लगता है। साठ पार कर गई है लेकिन है अभी भी वैसी ही सोलह साल की। जानता हूँ बहुत शिकायतें हैं उसे मुझसे। पता नहीं जीते जी दूर भी कर पाऊँगा या नहीं। हमेशा यह ही सोच कर संतोष करता रहा हूँ कि नाराज बेशक रही हो पर उसने कभी मेरी परेशानियाँ बढ़ाई नहीं। कहाँ जी पाता मैं सत्तर बरस यदि वो झगड़ालु होती।
रिश्तों में एक दूसरे का नजरिया समझना बहुत जरूरी होता है | यदि आप अपने नज़रिए से सब कुछ मापते रहे, तो ग़लतफ़हमी और शिकायतें तो रहेंगी हीं | चीज़ें हमेशा वैसी नहीं होती जैसी हमें दिखती हैं | जो दीखता है उसके पीछे जो है वो देखना कहीं जरूरी होता है | ऐसा न करने से परेशानी हमें भी होती है और दूसरे को भी |
कविता -
काफी आगे निकल आयी थी | मन थका हो तो शरीर भी जल्दी थक जाता है | मैं एक बैंच पर बैठ गयी | मन का तूफ़ान अभी शांत नहीं हुआ था |
रमेश लगभग आधे घंटे बाद पहुँचे | थकावट उनके चेहरे पर साफ़ दिख रही थी | मैंने उन्हें पानी दिया | दस मिनट तक वो कुछ नहीं बोले |
'कुछ परेशान हो | कुछ कहना चाहती हो?' उन्होंने चुप्पी तोड़ी |
'विवाह क्या एक दूसरे की जरूरतें पूरा ककरने का अनुबंध मात्र होता है?' मैंने शून्य में ताकते हुए पुछा |
'नहीं, एक दूसरे को संवारने की चुनौती होता है'
मैं उन्हें देख रही थी। कहना चाहती थी, 'फिर तो बहुत बड़ा अहसान कर दिया तुमने मुझ पर' पर कह नहीं पाई।
'मैं ऐसा सोचता हूँ' उन्होंने कहा।
'मैं आपको कैसे संवार सकती थी?'
'अरे! कैसे संवार सकती थीं पूछती हो। संवारा तुमने मुझे।'
'कैसे?' मैंने हँस कर कहा।
'मेरी जिम्मेदारियों के आड़े न आकर। कभी शिकायत न करके।' उन्होंने मेरा ह हाथ में ले लिया, 'सोचो, यदि तुम मुझे उन्हें पूरा करने से रोकती या शिकायत करती या वैसे ही अड़ंगे अड़ाती जैसे मेरे माता-पिता ने तुम्हारी पढ़ाई के लिए अड़ाए थे तो क्या हम इतना सुखमय जीवन जी पाते। नहीं। मैं तनाव में रहता और शायद अब तक निकल चुका होता। तुमने कभी उसकी शिकायत नहीं की इसलिए मैं तुमसे जुड़ा रहा। तुम मुझे रोकती तो शायद, शायद क्या पक्का, मैं उनके और पास चला जाता और तुमसे दूर। जानता हूँ तुम्हारे प्रति उनका व्यवहार कभी ठीक नहीं रहा । फिर भी तुमने मुझे नहीं रोका इसलिए तुम मेरी दृष्टि में महान बनी रहीं। मर्द न कविता, पेड़ जैसा होता है। कई शाखाओं को पालना होता है उसे, बराबर बराबर। वो चाहे भी तो उन शाखोंको काट नहींसकता। पत्नि उस पेड़ से लिपटी बेल जैसी होती है।'
'यदि कोई उन शाखों को काट डाले तो कितने फल आएंगे उस पेड़ पर और कितनी छाया दे पाएगा वो पेड़?'
'ठीक कह रही हो। कितना सही सोचती हो तुम।'
'मुझे आज सब जो मान देते हैं न, वो मैंने नहीं कमाया, तुमने कमा कर दिया है मुझे। वो तुम्हारा है। ऐसे संवारा है तुमने मुझे। तुमने मुझे वैसा ही रहने दिया जैसा मैं था या हूँ | कभी बदलने की कोशिश नहीं की | करतीं तो भी मैं इस रिश्ते में रहता पर शायद मन मार कर | फिर हमारा ये सम्बन्ध इतना सुखद न होता शायद |'
'मैं जैसे यशोदा और मेरा जीवन मानो कान्हा-ऐसा लगता है मुझे। पास है पर मेरा नहीं है।' मैंने गोवर्धन पर्वत की ओर देखते हुए कहा।
वे बोले, 'देवकी जैसा होता तो कैसा लगता?'
मैंने उनकी ओर देखा। निरुत्तर थी मैं।
'समय तो हमेशा कंस जैसा ही होता है सभी का, कविता। हर कहानी थोड़ी सी पात्र लिखते हैं, थोड़ी कहानी खुद लिखती है और बाकी की सारी वक्त लिखता है।'
मैं उनके चेहरे की झुर्रियों में उलझे संयम को माप रही थी। वो मेरी आँखों में गोते खाते प्रश्न ढूंढ रहे थे।
'हमेशा मुझे यही बात अखरती थी कि तुम कभी शिकायत क्यों नहीं करतीं। बहुत ज्यादा करती तो भी शायद खलता मुझे।'
मैं हल्का सा मुस्कुरा दी। शायद व्यंग्यात्मक लगा उन्हें। पर जल्दी से प्रतिक्रिया देने की आदत नहीं थी उन्हें।
'तुम्हें आगे पढ़ने और नौकरी करने देने के पीछे मेरी मंशा खुद को आर्थिक सुदृढ़ता देने की नहीं थी। मैं बस यह चाहता था कि तुम सारे दिन घर में बंद रहकर बस ताने ही न सुनती रहो। तुम्हारा अपना दायरा हो।' वो बोलते रहे, मैं सुनती रही। पहली बार इतना बोल रहे थे वो।
'देख लो, उम्र की बाउंड्री तो तुम भी पार कर चुकी हो और मैं तो बोनस जी रहा हूँ। कब हमारा साथ छूट जाए प तुम जानती हो न मैं। बस अब अपने लिए जीते हैं। तुम खूब शिकायत करना, मैं सुनुगाँ। पतंग बन उड़ तो पाओगी नहीं तुम और न ही मैं उड़ा पाऊँगा। पर छत पर शाम की चाय तो साथ पी सकते हैं न हम। और फिर वहीं देर तक बैठे रहकर चाँद को चिड़ाएँगे। देखना, सारे के सारे तारे हमारा ही साथ देगें और हवा भी खूब हँसेगी।'
मैंने उनके कंधे पर सिर टिका दिया । वो मेरे गालों पर थपकी देने लगे। उनकी बातों की दवा ने पैंतालीस वर्षों की पीड़ा मिटा दी थी। शायद इनसे मेरी शिकायतें फ़िज़ूल ही थीं | ये तो नहीं कहूँगी की सारी की सारी एक दम से दूर हो गईं थीं, पर हाँ, मन शांत था अब |
भावपूर्ण!पुरुष और स्त्री की सोच सर्वदा भिन्न होती है दोनों अपने स्थान पर सही होते हैं । स्वाभाविक कहानी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, स्मृति बहिन | आपका आशीर्वाद बना रहे बस |
जवाब देंहटाएंAnother emotion ...beautifully depicted. Again nothing right or wrong, human being is capable of reproducing innumerable emotions/perceptions... its amazing!! Bahut hii khoob Gaurav ji
जवाब देंहटाएंBahut bahu dhanyawaad, Manasi ji....
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