शनिवार, 7 सितंबर 2024

पुरुष हराता रहा प्रेम को

 

पुरुष हराता रहा प्रेम को 


पुरुष को नहीं आया प्रेम करना,

वह नहीं खोल पाया स्त्री-मन की तह,

बस ख्याल रखने, 

जरूरतें पूरी करने को समझता रहा प्रेम।


पुरुष ने 

अपनी अपहृत पत्नी को वापिस लाने को,

बाँध दिया सागर पर सेतु।

लड़ लिया रण।

पर खुद को आदर्शवादी सिद्ध करने को,

उस ही पत्नी का कर दिया परित्याग।

पुरुष हराता रहा प्रेम को,

और हारता रहा प्रेम में।


पुरुष ने 

अपने शैशभ-प्रेम को,

किसी और का होने दिया 

पर मूर्तियों में खड़ा रहा प्रेमिका के साथ।

समस्त संसार से करा दी उसकी पूजा,

पर अपनी पत्नी को समझा ना सका,

प्रेम और विवाह के अंतर की सार्थकता।

पुरुष हराता रहा प्रेम को,

और हारता रहा प्रेम में।


पुरुष ने 

प्रेयसी के मन में बोया प्रेम,

पर, वो पौध को पेड़ बना ना पाया।

देह के ताप में पिघलता रहा,

प्रेम के गले में बाँध कर,

अधिकार की रस्सी.

पौरुष की छड़ी पटकता रहा।

पुरुष हराता रहा प्रेम को,

और हारता रहा प्रेम में।


पुरुष ने 

निःस्वार्थ प्रेम किया तो,

कूद पड़ा कर्त्तव्यों के खलहर में,

त्याग के मूसलों से कुटता रहा,

पत्नी तो दिखी, 

उसके भीतर प्रेयसी फिर ना दिखी।

संभाल, सांत्वना, भोजन, देह, सब मिला,

वात, पित्त, कफ, अनिद्रा, मधुमेह भी मिला,

प्रेम, ना उसने दिया, ना उसे मिला।

पुरुष हराता 

रहा प्रेम को,

और हारता रहा प्रेम में।


© गौरव शर्मा लखी



#पुरुष #प्रेम #प्रेमी #कविता #love #man #manhood #mysogyny #feminism 







मंगलवार, 20 जून 2023

मुस्कुराइए, आप लखनऊ में है

 


मुस्कुराइए, आप लखनऊ में है


इस  बार लखनऊ कुछ ज्यादा ही साफ सुथरा लगा। ट्रैफिक कहीं कहीं दिल्ली जैसा ही था। आलमबाग से कैंट होते हुए गोमती नगर तक का ओला का सफ़र मजेदार रहा। केंटोनमेंट की सड़क के किनारे पर शिवमंगल सिंह सुमन जी की "पुष्प की अभिलाषा" पढ़ कर खुद के उनकी बिरादरी का (कवि) होने पर गर्व हुआ।

जनेश्वर मिश्र पार्क के बाहर लगी सूर्य नमस्कार करती प्रतिमाएं आकर्षक थी। वीडियो बनाना चाहता था लेकिन थका हुआ था। पंख वाले सात घोड़ों का चौराहा और डिवाइडर की हरियाली देख कर गर्व हुआ कि मेरे राज्य की राजधानी भी कुछ कम नहीं है।

गोमती नगर से महानगर तक की ओला के ड्राइवर कुछ ज्यादा ही बातूनी थे। मेरे सारे प्रश्नों का उन्होंने किसी लखनऊ


वासी की तरह ही गर्व से विस्तारपूर्वक उत्तर दिया। मायावती, अखिलेश यादव और योगी जी तीनों के कार्यकालों में अंतर का अपना विश्लेषण किया।

मायावती के हाथी वाले पार्क और जनेश्वर मिश्र पार्क का उनका अंतर मजेदार था।

"जनेश्वर मिश्र पार्क अखिलेश बनाए थे। बड़ा है बहुत। मायावती के पार्क में फैमिली आती हैं। सन्डे है ना, सो भीड़ है। जनेश्वर मिश्र पार्क में लड़का लडकी आते हैं। कही कोने में बैठ कर घुपशुप कर लेते हैं।"

महानगर से वापसी का सफ़र हमने लखनऊ मेट्रो से किया। चारबाग रेलवे स्टेशन के गुम्बद की रोशनी के बदलते रंग राज्य की राजधानी के वैभव का गीत गा रहे थे। आलमबाग का सर्राफा बाजार रौनक से खनक रहा था। 

लखनऊ जाकर अब दोबारा कहा जा सकता है शायद "मुस्कुराइए, आप लखनऊ में हैं"


गौरव शर्मा

सोमवार, 19 जून 2023

सनातनी आदर्शों की परिभाषा हैं राम



सनातनी आदर्शों की परिभाषा हैं राम 



 श्री राम के अस्तित्व और जन्म को लेकर अनेक शोध कार्य हुए। कुछ ने राम-युग लाखों वर्ष पूर्व बताया तो कुछ ने ईसा से 300 वर्ष पूर्व। 


मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए कार्बनडेटिंग को ही सबसे विश्वसनीय मानूंगा। इसके अनुसार राम ईसा से 5121 वर्ष पूर्व हुए। यानी अब से लगभग सात हजार वर्ष पूर्व।

गर्व का विषय है कि लगभग सात हजार वर्ष पूर्व भी हिंदू और हिंदू-सभ्यता नैतिक मूल्यों, संस्कारों, संबंधों की मर्यादा और सामाजिक नियम एवम् दायित्वों के प्रति इतनी सजग थी।

मैं सूर्यद्विज सनातनी ब्राह्मण हूँ। राम मेरे हृदय में बसते हैं। श्री राम का अस्तित्व मेरे लिए उतना ही सत्य है जितना मेरा स्वयं का अस्तित्व। जो लोग किंतु- परंतु में फंसे हैं, आदि-संत वाल्मीकि द्वारा रचे चरित्रों को सत्य चाहे ना माने, उनके द्वारा रचित ग्रंथ को तो सत्य मानते होंगे। 

साहित्य किसी समय के समाज और संस्कृति का सबसे मौलिक साक्षात्कार होता है। साहित्यकार वही लिखता है जो उसने देखा, समझा, या जिया होता है।
मैं वर्ष में कम से कम एक बार श्रद्धेय संत तुलसीदास जी की रामचरित मानस का पाठ करता हूं और नियमित रूप से सुंदरकांड पढ़ता हूं। जितनी बार पढ़ता हूं, चकित भी होता हूं और गर्वित भी।
कितने उच्च पारिवारिक और सामाजिक मूल्य थे। गुरुओं के प्रति क्या आदर-भाव था कि एक पिता पुत्र को स्वयं से दूर नहीं भेजना चाहता था किंतु गुरु की आज्ञा की अवहेलना नही कर सकता था। एक भाई अपने नव वैवाहिक जीवन की आहुति दे देता है और दूसरा , माँ द्वारा षडयंत्रों में पकाकर ही सही, किन्तु परोस कर दिया गया राज्य ठुकरा दिया। एक कोमलांगी, नवविवाहित पत्नी जो आभूषण, वैभव, ऐश्वर्य को अपने पतिव्रत पर न्यौछावर कर पति के साथ वन को चल देती है। महावीर हनुमान जैसा भक्त जिसने हृदय में राम को बसा लिया था। महर्षि वाल्मीकि ने खलनायक का चरित्र भी ऐसा रचा जिसके आदर्श कलयुग के सबसे सज्जन पुरुष से भी ऊँचे होंगे।

मुझे गर्व होता है सनातनी सभ्यता पर जिसके ग्रंथों में सात हज़ार वर्ष पूर्व बंदर, भालू और गरुड़ भी आदर्शवादी थे। मित्रता पूज्य थी। अग्नि की शपथ विश्वसनीयता सुनिश्चित करती थी। अग्रज पिता तुल्य होता था और उसकी पत्नी माता तुल्य। तब भी सनातनी नदी, पहाड़, आकाश, अग्नि, वायु, सागर और भूमि को पूजते थे। 

निष्पक्ष होकर सोचें, धर्मों की व्यर्थ प्रतिद्वंदिता को परे करके सोचें, मनुष्य होकर सोचें, तो क्या रामायण के आदर्श अनुसरणीय नहीं हैं। राम को जानने के बाद किस धर्म की माता अपने पुत्र को राम जैसा बनाने की इच्छा नहीं पाल लेगी? 


#राम #सनातन #धर्म #अयोध्या #राममंदिर #ram #ayodhtakeram 


गुरुवार, 6 अगस्त 2020

हमारी प्यारी साइकिल

 


                                                     हमारी प्यारी साइकिल 


पहले पहल आसमान से बातें करने की ललक जगाती है साइकिल l लड़कपन में साइकिल के पेडल पर खड़े होकर यूँ लगता है जैसे बादलों का झप्पट्टा मार मुट्ठी में बंद किया जा सकता है l दोस्तों के साथ साइकिल की दौड़ हवा को पहली चुनौती देने जैसा होता था लेकिन हवा के लिए ये खेल जैसा होता था l जीतती भौ वही थी और खेलते खेलते बालों को खूब चिढ़ाती थी l
कई दिनों से फिर से साइकिल चलाने का मन करता हैl आखिरी बार कब चलाई थी, याद नहीं है l

           शुरूआती बचपन में मुझे साइकिल चलाने का शौक नहीं रहा l बारह बरस का था जब दिल्ली से पूना गयाl वहाँ सब           साइकिल चलाते थे l मुझे भी साइकिल सीखने की धुन सवार हो गई l

 

पिताजी के पास बड़ी वाली हीरो साइकिल थी मेरे जन्म से भी पहले खरीदी हुई l वो बड़े गर्व से बताते थे, "सिर्फ 50 रूपये की सेकंड हैंड खरीदी थी l बहुत साथ दिया है इसने l कितनी सारी यादें जुड़ी हैँ इसके साथ l तुम सबका बचपन इसने भी देखा है l जब निधि बैठने लायक हुई थी तब छोटी सी गद्दी लगवाई थी लाल रंग की l फिर तू बैठने लायक हुआ तो एक और लगवाई l निधि तो कितनी बार सो भी जाती थी और मेरे हैंडल पकड़े हाथ पर सिर टिका लेती थी" पता नहीं कितनी बार बताया था पिताजी ने l हर बार उनकी आँखों में चमक आ जाती थी l
दूसरी चीजों की तरह पिताजी अपनी साइकिल का भी बड़ा ध्यान रखते थे l 

 

एक दिन ज्यादा सनक चढ़ी तो पापा की साइकिल खुद ही लेकर निकल पड़ा मैं l कैंची चलाने की कोशिश की l कुछ सफलता मिली पर फिर बहुत बुरी तरह गिरा l घुटने और ठोड़ी छिल गई l तब के बाद मैंने कभी कैंची नहीं चलाई l समझ भी नहीं पाया कि लोग आखिर इतने अटपटे तरीके से साइकिल चलाते क्यों हैँ जबकि वो इतने आरामदायक तरीके से चल सकती है l

 

अगले दिन स्कूल में सबको पता चल गया कि नया बालक साइकिल सीखते सीखते गिर गया l जिनको ये हुनहर आता था उन्होंने हमारी खिल्ली ऐसे उड़ाई जैसे वो यह चक्रव्यूह भेदना अभिमन्यु की तरह सीखे थे l
इतवार को पिताजी ने हमें साइकिल सीखाने का बीड़ा उठाया l घर के पीछे वाले मैदान में सीधा गद्दी पर सवार कर दिया और घंटे -डेढ़ घंटे के अभियान में गिरने भी ना दिया l उस दिन हम घर ऐसे लौटे जैसे राणा प्रताप पहले दिन घोड़े की सवारी करके लौटे होंगे l 

 

अगली शाम पिताजी के पीछे पड़ना पड़ा l वो अनमने मन से गए और पंद्रह मिनट में लौटा लाए l अगले रोज़ हमने पिताजी को कष्ट नहीं दिया l एक दोस्त को बुला रखा था l पर वो दोस्त ही क्या जो दुश्मनी ना निभाए l
भाई साहब ने दस मिनट बाद ही हमें एक्सपर्ट घोषित कर दिया l साइकिल ने बहुत बुरी तरह पटका मुझे l कच्ची चोटें फिर हरी हो गईं l साथ में कुछ एक नई भी मिल गईं l साइकिल का एक पेडल भी लटक गया l अपनी चोटों से ज्यादा साइकिल की चोट की चिंता थी मुझे l पिताजी उसी से दफ़्तर जाते थे l घर में उतावली का इनाम मिलना तय था l पिटाई से बचने के लिए रोनी सूरत बनाई, आँखों में थूक लगाया और खराब वाली एक्टिंग की l थप्पड़ नहीं पड़ा बस पर लताड़ ढाई सौ ग्राम ज्यादा पड़ी l

गिरते पड़ते कुछ दिनों में साइकिल चलानी आ गई l मेरे बाद मेरी बड़ी बहन और मुझसे छोटी बहन ने भी साइकिल सीखी l फिर पड़ोस में रहने वाली एक आंटी के साथ मिलकर माताजी ने भी सीख ली l 
  जब माताजी ने साइकिल सीख ली तब हमारे यहाँ एक नई साइकिल आई l   स्पोर्ट्सलिंक की लेडीज साइकिल -लाल रंग की l तभी हमें पता चला साइकिल भी द्विलिंगी  होती है l
उस साइकिल से पहली बार मैंने साइकिल मैराथन में भाग लिया था l पूना के पथरीले ऊँचे नीचे रास्तों पर साइकिल चलाने का मज़ा ही अलग है l 
एक दो साल लेडीज साइकिल खूब चलाई l फिर लड़के चिढ़ाने लगे l मैं फिर से पिताजी की 24 इंची मर्दाना साइकिल चलाने लगा l 

 

क्रिकेट के मैच खेलते जाते समय आगे एक दोस्त और पीछे क्रिकेट की बड़ी सी किट लादकर कई बार उल्टी हवा से लड़ा हूँ मैं l कई बार ट्रिपल सीट पर अपनी ताकत की शेखी बखारी l
साइकिल से कई बार चोट भी खाई l लेकिन साइकिल चलाने वालों को अपनी चोट से ज्यादा साइकिल की चोट की ज्यादा चिंता रहती है l

 

पापा की प्यारी सेकंड हैंड साइकिल ने बुरे समय में मेरा भी बहुत साथ दिया l गरीबी के समय में गारमेंट्स का बड़ा सा बोरा उस बूढ़ी साइकिल के करिअर पर बाँधें कई किलोमीटर दूर से लाया और छोड़ा है मैंने l कई बार जेब में अठन्नी भी ना होती थी l मन में डुबका लगा रहता था कि पंक्चर हो गया तो क्या करूँगा l पर वो साइकिल पोते की तरह प्यार करती थी मुझे l शायद ही कभी रूठी हो l मैं थक जाता था वो कभी हाँफती ना थी l 
जीवन की कठिन परीक्षाओं से उबारने में पापा की चहेती साइकिल ने हमारे परिवार का बहुत साथ दियाl मैंने स्कूटर ले लिया l बूढ़ी साइकिल को आराम मिल गया l हम कभी कभार ही उसे चलाते थे l 

 

फिर एक दिन किसी अखबार बाँटने वाले लड़के की साइकिल चोरी हो गई l उसने हमसे साइकिल बेचने की बात पूछी तो पापा ने उसे ऐसे ही दे दी l 
कभी कभार वो दिखता तो पापा साइकिल से ऐसे मिलते जैसे कोई बिछड़े दोस्त से मिलता है l बुरी हालत में होती तो लड़के को डाँट भी देते थे l 

 

काफी वक़्त गुज़र गया l घर में तीन कारें आ गईं l मोटर-साइकिल आई, चली गईं l पिताजी भी चले गए l पिताजी तो रोज़ याद आते हैँ पर साइकिल की याद तब जरूर आती है जब मैं अपने बचपन या बुरे दिनों को याद करता हूँ l
काले रंग की 24 इंची हीरो साइकिल वाकई हीरो थी l वह हमारे बचपन से जवानी तक आड़े तिरछे हर वक़्त में सहभागी रही l आज पता नहीं वो होगी या नहीं होगी l होगी तो ना जाने किस हाल में होगी l

           हम उस साइकिल के हमेशा कृतज्ञ रहेंगे l


शनिवार, 2 मई 2020

आँखोंदेखी #लॉक डाउन स्पेशल





                          आँखोंदेखी 


                 #लॉक डाउन स्पेशल 

गुप्ता जी ने सुबह से पहली बार शायद बालकनी से सड़क पर झाँका था l हमेशा की तरह सिर्फ नकली जॉकी वाले कच्छे में थे l तोंद देश की जनसंख्या से प्रतियोगिता करती थी उनकी l
दाढ़ी के मुरझाए बाल और भारी आँखें अंतर का हाल कह रही थी l पिछली रात गुप्ताइन ने तुरई की सब्जी बनाने से मना कर दिया था l 
तनातनी हो गई थी l गुप्ता जी का ब्लड-प्रेशर तब से ही हाई था l बिना AC के सेठ जी को नींद भी नहीं आती थीl

12 बजे बिस्तर छोड़ा था l

सामने वाली दुकान का शटर गिराकर तीन लोग सड़क पर बैठे कोरोना पुराण सुना रहे थे l चौथी कुर्सी खाली थी l
गुप्ता जी ने लपक कर टी शर्ट गले में डाली और यूँ भागे जैसे महफिल के मुख्य अतिथि वो ही हों l
जीना उतरते उतरते टी शर्ट ने उनका समृद्धि-चिन्ह ढक लिया था l
वहाँ जाकर खड़े हुए कि लोग बैठने को कहेंगे l जब निमंत्रण ना मिला तो खुद ही बैठ गए l 

"बड़े दिनों बाद दिखे... लॉक डाउन का ढंग से पालन कर रहे हो, " तिवारी जी ने गुटखा हथेली पर परोसते हुए कहा l
"BP हाई हो रिया है कई रोज़ से," गुप्ता जी ने रजनीगंधा से भरे मुँह से बतलाया l
फिर क्या था,  बारी-बारी से ब्लड प्रेशर कम करने के नुस्खे आने लगे l
गुप्ता जी कुर्सी से खड़े होने को हुए तो मलिक साहब ने उठने ना दिया,  "अम्मा, बैठो भी यार l"
"धनिया लेने उतरा था, चटनी बनेगी l वो इंतजार में बैठी है " गुप्ता जी गरियाये l
"आ जाएगा धनिया वाला,  यहीं आएगा, " कोरोना एक्सपर्ट मलिक साहिब ने ऐसे बोला जैसे जिले के सब्जीवालों की एक -एक मूवमेंट की खबर रखते हों l
पाँच मिनट बाद गुप्ता जी को घर से हाज़िर होने का फरमान आ गया l
"पापा,  मम्मी बुला रही हैँ "
गुप्ता जी बिना धनिया लिए ही भाग लिए l अभी तो रात का बी.पी.  भी नार्मल ना हुआ था l तीन लोगों के ठहाकों से सड़क गूँज उठी l

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

"मैं न गा पाता हूँ , न ही नाच पाता हूँ "







         "मैं न गा पाता हूँ , न ही नाच पाता हूँ "


तीसरी क्लास में मोहल्ले के ही एक प्राइवेट स्कूल में पढता था मैं | माँ भी उस ही स्कूल में पढ़ाती थीं | स्कूल में एक डांस टीचर भी आते थे | माँ ने मुझे और मेरी बहनों को कत्थक सिखाने के लिए मास्टरजी से बात कर ली | स्कूल खत्म होने के आधे घंटे बाद का समय तय हुआ | 
पहले दिन मैं भी अपनी बहनों जितना ही उत्साहित था | हम स्कूल से आए | माँ ने फटाफट फुलके सेके | सब्जी सुबह ही बनाकर गईं थीं | मास्टरजी के आते ही हम 'पग घुंघरू बाँध' तैयार हो गए |




लेकिन मास्टरजी ने आते ही सवा-दो रूपये थमाकर मुझे हलवाई की दूकान से लस्सी लाने भेज दिया | 
वो मोहल्ला नया-नया ही बसा था | काफी कम दुकानें थीं | वो भी हमारे घर से काफी दूर | 

लस्सी एल्युमीनियम के जंबो गिलास में मिलती थी | उस समय वो गिलास मेरे पौने हाथ के बराबर रहता होगा | गिलास के साथ लस्सी मिलने का अर्थ यह  था की मास्टरजी के लस्सी पी लेने के बाद गिलास वापिस भी करने आना होगा |
आधा किलोमीटर दूर से जुलाई की भरी दोपहरी लस्सी लाने और गिलास वापिस लौटा कर आने में आठ साल के बच्चे को जितना समय लगना चाहिए , मुझे भी उतना ही लगा होगा | लेकिन मास्टरजी की सेवा करने के चक्कर में हम पहले दिन कत्थक का मात्र एक स्टेप ही सीख पाए |

"ता थई- ता थई - तिग-था -तिग-तिग-थई "

अगले दिन भी यही हुआ | मास्टरजी ने लस्सी पी | हमने वही स्टेप कर के दिखाया और क्लास ख़तम हो गई | 
अगले दिन हमने लस्सी ली और हलवाई की दूकान से थोड़ी दूर आकर खुद ही लस्सी का गिलास गटक लिया  | गिलास हलवाई को लौटाया और डकार लेते हुए घर लौट आए | 
मास्टरजी लस्सी का बेचैनी से इंतज़ार कर रहे थे | हमारा खाली हाथ देखकर पुछा " क्या हुआ? क्या दूकान बंद थी ?"

"नहीं, सर | गिलास हाथ से छूट गया | लस्सी बिखर गई थी तो मैं गिलास वापिस करके आ गया |" 

मास्टरजी को गहरा आघात लगा था | उन्होंने खींच कर एक रेहपट रसीद कर दिया | देखने में डेढ़ पसली के मास्टरजी का थप्पड़ तो गूंजा ही, हमारा राग भैरवी ही स्वतः ही शुरू हो गया | 
माँ ने बड़ी विनम्रता से मास्टरजी को अगले दिन से आने को मन कर दिया और इस तरह हम कत्थक में पारंगत होते होते रह गए | इतना ही नहीं , हम किसी बरात में भी घोड़ी के आगे नाच नहीं पाते | कई लोग हमसे इस बात पर नाराज़ हो जाते हैं | पर हम क्या करें ? 


हाँ, ""ता थई- ता थई - तिग-था -तिग-तिग-थई " वाला स्टेप हम आज भी करके दिखा सकते हैं |



हाँ जी, तो अब हम बताते हैं कि हम गा  क्यों नहीं पाते ...

अगले वर्ष, यानि कक्षा चार में हम एक दूसरे स्कूल में पढ़ते थे | स्कूल में किसी प्रोग्राम के लिए ग्रुप-सांग के लिए हमें भी चुना गया | स्कूलों में यह दिक्कत है कि किसी भी एक्टिविटी के लिए बच्चों का चुनाव शक्ल और पढाई कि परफॉरमेंस के हिसाब से ही होता है | गाने-बजाने या एक्टिंग की प्रतिभा को तो महत्व ही नहीं देते अध्यापक-गण |

"तुम समय की रेत पर छोड़ते चलो निशां... पुकारती तुम्हे ज़मीं, पुकारता है आसमां "
पंकज उधास जैसी शक्ल और मूंछों वाले गुरूजी पूरी तन्मयता से हारमोनियम के साथ गाते और फिर बच्चों से गाने को कहते | आगे वाली लाइन में दाएं से तीसरे नंबर पर खड़े थे हम | हमारे आवाज़ कोरस में शायद सबसे अलग आ रही थी | 

उस दिन बच्चों के साथ खेलते खेलते हमारी पैंट के सामने वाले सारे बटन टूट गए थे | बार-बार सहेजते पर खिड़की के कपाट फिर खुल जाते थे | शायद इस वजह से भी हमारे सुर नहीं लग रहे थे |
संगीत-सम्राट-तानसेन-तुल्य गुरूजी बार-बार गवाते पर हमारे आरोह-अवरोह पूरे ढीढ हो गए थे | 

गुरूजी का संयम टूट गया | उन्होंने हारमोनियम झटके से परे किया और उबाल पड़े , "पैंट के बटन लगा नहीं सकता है , गाना क्या गा पायेगा ? भाग जा यहाँ से |" 
ग्रुप में लड़कियां भी थीं | स्कूल में इज़्ज़त थी हमारी | गुरूजी ने मिटटी में मिला दी | 








हम कई दिन तक सदमे में रहे |

नार्मल हुए तो प्रण  कर चुके थे कि  कभी गाना नहीं गाएंगे | कभी गाया  भी नहीं | हाँ, गाने सुनते हैं | गीतों और कविताओं का शौक है | गुलज़ार साहिब और साहिर साहिब की पूजा करते  हैं | पर गाना सुनाने की कभी कोशिश नहीं करते |
एक बात और, बटन वाली पैंट भी तब के बाद आज तक नहीं पहनी हमने | आप भी मत पहनना और न ही अपने बच्चों को पहनाना | नहीं तो , वो भी गाना नहीं सीख पाएंगे |



गुरुवार, 22 अगस्त 2019

आई.सी.यू.



आई.सी.यू.






आई.सी.यू. के पलंग पर पड़ा
वो निसहाय निरीह आदमी 
जिंदगी और मौत को झगड़ते 
देखता है खामोश डरा हुआ 
जैसे कोई बच्चा कोने में 
दुबका देखता है 
अपने माँ-बाप को झगड़ते हुए 
नहीं जानता वो किसके हिस्से में जाएगा l

बाहर रिश्तेदारों की भीड़ है 
पता नहीं वो थैले में 
आशा और हौंसला लाए हैं 
या आखिरी बार मिल लेने की औपचारिकता 
सबके पास बातें हैं, किस्से हैं, 
पर उसके लिए शायद इतना काफी है 
कि वो आए हैं 
किसी के लिए वक़्त खर्च देना 
भी तो बड़ी बात है 


साँसों का मोहताज वो आदमी 
महसूस करता है 
अपनी कमर के नीचे तड़पती 
अपनी जिम्मेदारियाँ,
बच्चों का भविष्य और
पत्नी का सिन्दूर 
वो चाहता है कमर उचका कर 
उन सब को अलग हटा दे 
पर वो चुभन जिन्दा होने का अहसास है l

अभी कुछ देर पहले ही 
सब मिल गए हैं उससे
माथे की सिलवटों को 
बड़ी शिद्दत से छुपाकर
दो दिन बाद बेटी की फीस भरनी है 
एक हफ्ते बाद बेटे का जन्मदिन है 
और महीने बाद करवा-चौथ है शायद 
उसने देखा था 
सबकी ख्वाहिशें पिघलकर 
आँखों में जमा होने लगीं थीं l

कल तक भाग भाग कर 
उसने सारे कर्तव्यों की किश्त भरी थी 
रात को खाना बड़े प्यार से परोसा था पत्नी ने 
उसने बड़े चाव से खाया था 
पर आधी रात अचानक जिंदगी कसमसाने लगी 
बेचैनी, घबराहट, पसीना- 
सासें उखड़ने लगी 
कुछ देर बाद वो पतंग जैसा था 
जिसकी डोर कफ़न-सा सफ़ेद कोट पहने 
डॉक्टरों के हाथ में थी 
जो शायद भावनाएँ
अपने बैंक के लाकर में रख आये थे 
रोज़ न जाने कितने आते थे उस जैसे 
खर्च करते भी तो किस-किस पर करते l

वो चाहता था उठ कर भाग जाना 
कर्तव्यों की अगली किश्त जुटाना 
पर उसका शरीर उसके वश में ना था
पर अपंग भावनाएँ थीं 
जो आसमान समेट लाना चाहतीं थीं 
सारे कर्तव्य एक साथ पूरे कर देना चाहतीं थीं 
वो जिम्मेदारियों को कमर के नीचे से निकालकर
अपने पेट पर रख लेता है 
और मौत से मोहलत माँगने लगता है l