मायूस बुढ़ापा
पीठ पर कुछ सिहरन सी थी
खुजा कर देखा
तो नाखुनों में खून भरा था
बोला- डाक लाया हूँ, पढ़ लो।
चिट्ठी क्या थी, शिकायत थी।
बिस्तर उकता गया था मुझसे
कहा था-सलवटें पैनी कर ली हैं
तुम्हारा निक्कमेपन को ढांके
उभर भी गई हैं |
चादर ने रोएँ उगा लिए हैं
शायद चुभते भी होगें तुम्हें
तकिये पर तुम्हारे सिर ने
एक परमानेंट गड्ढा बना दिया है
वो भी तैयार है
तुम्हारे कान काटने को।
गद्दे की रुई तो
अधमरी हो गई है
सासँ भी नहीं ले पाती
तुम्हारे बोझ तले
दबी जो रहती है।
अब अपनी उम्र का
हवाला मत देना
माना बूढ़े हो गए हो
पर जिन्दा हो
मरे नहीं हो।
बाहर निकल कर सूरज से
राम-राम श्याम-श्याम कर लोगे
हवा को अपने झीने बालों में
भरने दोगे
चाँद को देख मुस्कुरा दोगे
तो बिखर नहीं जाओगे|
छड़ी तो मँगा ली थी बेटे से
देखो वहाँ मुँह लटकाए टँगी है
उसे लेकर आसपास की
सड़कों को ही खटखटा आया करो।
पोता-पोती भी तो हैं
अपने तजुर्बों को
रोज थोड़ा थोड़ा
उनके कानों में
बुरक दिया करो।
क्या दुख है
क्या चिन्ता
क्यों इतनी मायूसी?
क्यों मरने से पहले ही
मर रहे हो तुम?
बाँट लिया करो
कुछ अपना
कुछ औरों का।
मन मत थकने दो
तन भी नहीं हारेगा
खर्च दिया करो हर घंटे
हँसी थोड़ी सी,
गालों की खाइयों को
बहुत भायेगा।
उम्र एक रकम है बस
रिकरिंग डिपोजिट जैसी
खुशियों का सूद न मिले
तो भला, क्या फायदा।
