बुधवार, 20 जून 2018




                               मैं अब प्रेम की कवितायेँ नहीं लिखता




मैं अब प्रेम की कवितायेँ नहीं लिखता 
नहीं, भावनाएँ नहीं मरीं हैँ मेरी 
बस उनका मोल समझ गया हूँ 
नहीं चाहता कि स्याही में सानकर 
कागज में परोस कर 
उन्हें सब के सामने रख दूँ.




मैं अब प्रेम की कवितायेँ नहीं लिखता,
नहीं, चाँद-सितारों की उपमाएँ 
बेमानी नहीं लगती मुझे,
पर आपकी प्रेयसी 
अतुलनीय भी तो हो सकती है,
क्यों मैं उसकी तुलना करूँ.



मैं अब प्रेम की कवितायेँ नहीं लिखता,
नहीं, ज्यादा पढ़-लिख नहीं गया हूँ,
पर थोड़ी परिपक्वता कमा ली है,
सोचता हूँ, मेरा प्रेम बस मेरा है,
ख़ुशी-उदासी, उमंग-मायूसी,
जो भी पाऊँ, क्यों बाँटु?



मैं अब प्रेम की कवितायेँ नहीं लिखता,
नहीं, मैं कोई असफल प्रेमी नहीं हूँ,
प्रेम की मेरी परिभाषा कुछ अलग है,
शब्दों की चाशनी में लपेटकर,
कहकर, लिखकर या जताकर,
अपनी भावनाओं का बाजार क्यों लगाऊँ ?



रक्त और विधि के गढ़े रिश्तों के बीच,
प्रेम, मन का बनाया 
एक सुन्दर रिश्ता होता है,
अच्छा हो, बुरा हो,
अपेक्षाओं पर खरा उतरे, न उतरे,
उसे मनोरंजन का सामान क्यों बनाऊँ ?

इसलिए, मैं अब प्रेम की कवितायेँ नहीं लिखता....

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