मंगलवार, 8 मई 2018

बात उन दिनों की है


                         


                            बात उन दिनों की है 



वो दँसवी के बोर्ड वाला साल था। हमारे चेहरे पर पहला मुँहासा उग चुका था। सो, स्कूल यूनीफार्म की नीली पेंट फैशन वाली हुआ करती थी- आगे दो चुन्नटें, घुटनों पर ढीली और तंग मोरी ।
 ग्वालियर की हवा अजीब ही है. एक तरफ से भिंड के डाकुओं की दहशत और दूसरी तरफ मुरैना की गज़क की मिठास. हम  बहुत जल्दी ढलते थे हर माहौल में. 

" मैंने प्यार किया " उस ही साल रिलीज़ हुई थी। दोस्तों के साथ वीसीआर पर देखी थी हमने यह फिल्म, लास्ट वर्किंग डे की  आधी छुट्टी पूरी होने के बाद।

भाग्यश्री का पोस्टकार्ड  हमारी किताबों में भी रहता था । "नो सारॅी, नो थैंकयू" और "दोस्ती की है तो निभानी तो पड़ेगी" सब की जुबान पर रहते थे ।


पर इस पिक्चर के आने से पहले भी स्कूल के दोस्ती के रिश्तों में सच्चाई और ईमानदारी हुआ करती थी। लोग स्लैम बुक में दिल उड़ेल दिया करते थे। कोई लड़की राखी बाँध दे तो सही में बहन हो जाती थी और फिर कहीं भी चले जाओ कुछ सालों तक तो राखी हर साल पहुँचती थी डाक से।

एक लड़की हमारी भी बहन बनी थी उस साल-शालिनी।

तीस साल बीत चुके हैं l हमारा व्यवहार उसके साथ कैसा था, यह तो शायद वह ही बेहतर बता पाए लेकिन वो बिलकुल सगी बहनों जैसी थी l वह वहीँ पास में ही रहती थी और हम स्कूल से दूर l  सो कई बार उसके घर भी चले जाया करते थे . 

पूरे स्कूल में भाषणबाजी में हमारा कोई सानी था तो हमारा गिठ्ठा दोस्त आलोक ।
इंटरहाऊस काम्पटीशन्स में कभी वो जीत जाता कभी हम । पर उससे हमारी दोस्ती में कभी दरार न आई । शायद दिमाग ज्यादा खुले होते थे तब।


एक रोज़ लंच के बाद कल्चरल एक्टिविटी इन-चार्ज, सौदान सिंह सर ने फरमान सुना दिया कि छुट्टी के बाद हमें और आलोक को उनके साथ सिंधिया कन्या विद्यालय जाना है ,एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए।कह दिया की किसी दोस्त के हाथ घर में संदेसा भिजवा दें l  पर हमारी  चिंता वो नहीं थी l हमें तो भूख बहुत लगती थी और हम जानते थे की स्कूल की तरफ से कुछ मिलने वाला है नहीं l शालिनी समझ गयी l छुट्टी हुई तो हमें रुकने को कहकर फ़टाफ़ट अपने घर गई और एक टिफिन पैक कर लाई.


सौदान सिंह जी ने थ्रीव्हीलर बुला लिया था l हमने टिफिन सीट के पीछे लगे तख्ते पे रख दिया l सफर लम्बा था l सिंधिया स्कूल पर उतरे तो टिफिन लेना ही भूल गए l एल्युमीनियम के उस टिफिन में शालिनी न जाने क्या लाई थी पर उसकी भावनाएँ हमें अभिभूत कर गयी थी l 

बोर्ड की परीक्षाओं के बाद मैं ग्वालियर से दिल्ली आ गया l कुछ सालों तक शालिनी की राखी आती रही पर रिश्ते एक तरफ से थोड़े ही निभते हैं l 

तीस साल बाद फेसबुक पर मिली शालिनी. वो वैसी ही थी. और हम भी वैसे ही थे. उसकी और हमारी भावनाएँ भी वैसी ही थीं. पर जिंदगी ने हमें शायद और रूखा कर दिया था. हम दूसरों से ये उम्मीद और भी ज्यादा करने लगें हैं की वो समझ जाएँ बस. हमें कहना न पड़ें. फिर चाहे गलत समझें या सही. 

फ़ोन पर लम्बी बात नहीं कर पाता मैं। व्हाट्सएप से नफरत है मुझे. सब दोस्तों को शिकायत रहती है । ऐसा नहीं की दोस्तों और रिश्तों की कीमत कुछ भी नहीं है मेरे लिए ।पर मैं शायद कुछ अलग हूँ । काफी सारे दोस्त ये बात समझते भी हैं और जो नहीं समझते शायद यह सच्ची कहानी उन्हें समझा दे । 


#हिंदी #संस्मरण #ग्वालियर #राखी #स्कूल 

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