गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

सर्दियाँ -तब और अब




                     सर्दियाँ -तब और अब





तब गली से न मोटर साइकिल गुजरती थी
न घमंड भरा हार्न बजाती धुआँ की गाड़ियाँ
सूरज भी तब खुजमिजाज सा था
पुचकारता था, चुटकुले सुनाता था 
धूप बहुत लाड़ लड़ाती थी
हवा काली कलूटी नकचड़ी नहीं थी



खड़ंजे वाली साफ गली में

फुरसत की सुबह होती थी
प्रोजेक्ट और होमवर्क सारी 
छुट्टियाँ नहीं पी जाते थे।
सूरज का बुलावा आते ही
चारपाई पर दादाजी के साथ 
गली की रौनक बन जाते थे। 

गन्ना चूसते मीठे सवाल करते रहते
पर दद्दा के कान  रेडियो पर लगे होते थे
मंजुल की हिन्दी की कमेन्टरी
गावस्कर और विश्वनाथ की रेंगती बैटिंग
बाथॅम और बाबॅ विलीस की
कुटिल मुस्कानें रेडियो पर भी नजर आती थी
तब हर ओवर के बाद मशहूरियाँ 
नहीं आती थीं
हाँ, हर ओवर के बाद दद्दा
हमारे उल्टे सवालों का
पुल्टा जवाब देते थे



कटोरी में धँसा स्टील का गिलास 

भर कर जब दद्दा की चाय आती थी
आधी कटोरी फूंक मिला कर 
गुनगुनी चाय मुझे मिल जाती थी 
खबरें सारी बता कर भी
अखबार खाट पर पड़ा रहता था
जानता था, मूँगफली जब खाई जाएगी
छिलके उसे ही समेटने  होंगे।


तब मनमुटाव ज्यादा नहीं जी पाता था
इमोटीकानॅ असली होते थे
मुस्काने सस्ती होती थी
रिश्तों को गहनों से भी ज्यादा 
सहेजा जाता था।
पड़ोसी कभी कभी दिखने वाले
अंकल आंटी नहीं
चाचा चाची होते थे।
कंपकंपाने वाली ठंड का गुस्सा 
मन में प्यार की गरमाहट से
पिघल जाता था।




अब गुड़ की शकरकंदियाँ नहीं बनती हैं

अब जाड़ों की धूप की बाट 
जोहती चारपाइयाँ नहीं बिछती हैं।
अब दादा-दादी को रखने वाले
बड़े बड़े दिल नहीं होते हैं।
अब पिता की चारपाई पर
बेटे पायते नहीं बैठा करते हैं 
अब बस बदरंग सी सर्दी होती है
गुलाबी जाड़े नहीं होते हैं।
तब ठिठुरते तन को 
मन गरमाहट देता था
अब तन मन दोनों ठिठुरते हैं
ब्लोअर चलाने पड़ते हैं।