सोमवार, 28 अगस्त 2017

रामलीला








                                रामलीला 






कल ऐसे ही अपने विधार्थियों से पूछ बैठा कि उनमें से किस-किस ने रामलीला देखी है। उनके उत्तर सुन कर बड़ा आश्चर्य हुआ। कुछ ही ने रामलीला देखी थी वह भी एक या दो दिन । हाँ, टीवी पर रामायण बहुत लोगों ने देखी थी।
दुख हुआ कि एक परम्परा और सास्कृतिक धरोहर मिटने के कगार पर है। इस बात का भी क्षोभ हुआ कि हमारी नई पीढ़ियाँ कितनी शानदार चीजों से वंचित कर दी गई है।



                              




फिर मन में प्रश्न उठे कि क्या रामलीला की  प्रासंगिकता रामचंद्र जी के जीवन मूल्यों को नई पीढ़ी तक पहुँचाने मात्र ही है? यदि हाँ, तो टीवी पर ही देख लेने में क्या बुराई है?

मैं रामलीला को किसी विशेष धर्म के प्रचार व प्रसार के प्रयास के रूप में नहीं देखता।  ऐसे आयोजनों से समाज में उत्साह और उल्लास रहता है। लोग आनंद में रहते हैं तो खर्च करते हैं। सभी का भला होता है।
सोच के देखिए पूरे पैंतीस दिन रौनक- सड़क पर भी और मन में भी। चहल-पहल,  सजे हुए पंडाल, लाउड स्पीकर पर ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैंजनिया 
बजता रहता है, दशरथ का विलाप, जटायु का करहाना,  रावण की गरजना और अट्टहास गूँजता है मनोरंजन की पराकाष्ठा होती है। फिर यह चिंतन उल्टी चाल चलते हुए मुझे मेरे बचपन में घसीट ले गया।



हमारे मोहल्ले में प्रति वर्ष रामलीला का मंचन होता था। कनागत खत्म होते ही मंदिर में रामलीला की रिहर्सल शुरू हो जाती थी। मुख्य पात्र निश्चित रहते थे और बहुत से लोग एक से अधिक भूमिकाएँ करते थे।
अक्टूबर में हल्की ठंड पड़ने लगती थी। बिना बाजू का स्वेटर माँ जबरदस्ती पहना देती थी। मुझे पहले भेजा जाता था कुर्सियाँ घेरने के लिए। आठ बजे लगभग मंच का पर्दा उठता था। 


उल्लास और उत्साह का माहौल रहता था। पंडाल के बाहर खोमचों की कतारें शाम से ही लग जाया करती थीं। मूंगफली, चाट-पकौड़ी, आइसक्रीम, गुब्बारे, धनुष-बाण, गदा, रामायण के पत्रों के मुखौटे, नकली मूँछे, और हाँ, सरकंडों वाला साँप, याद है न, जो बड़ा और छोटा हो जाता है , सब मिलता था / रामलीला देखते रहिये, मुँह चलाते रहिये / शायद पूरे दिन में वो इतना ना कमा पाते हों जितना शाम से रात तक कमा लेते थे। उन लोगों पर रामचंद्र जी की कृपा उन दस दिनों में खूब होती थी।



                           





नुक्कड़ के दर्जी की दुकान पर काम करने वाला पतला-दुबला लड़का आसिफ सीता का रोल करता था। गजराज भैया  दूध बेचते थे । शरीर और चेहरा भारी-भरकम था। दो महीने पहले से ही मूँछे बढ़ानी शुरू कर देते थे। ढेढ़ इंच चौढ़ी और नथुनों के दोनों ओर चार-चार इंच लम्बी, घनी और किनारों पर दो-तीन बार घूमती हुई काली स्याह मूँछ देखकर छोटे बच्चे तो डर ही जाया करते थे। उनका दमदार ठहाका और कंपा देने वाली आवाज उन्हें साक्षात लंकापति रावण का स्वरूप देती थी। बाकी सब कुछ तो किराए पर आता था लेकिन रावण की पूरी वेशभूषा वे अपनी पर्सनल खरीद कर लाए थे किनारी बाजार से। 
पीछे वाली गली में रहने वाले देवदत्त भाई दशरथ, परशुराम और सुग्रीव , तीनों पात्र बखूबी निभाते थे। उनके दशरथ विलाप के अभिनय पर ईनामों की झड़ी लग जाती थी। ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन और कभी कभी तो एक सौ एक भी। गज्जू भाईसाहब पर भी खूब रुपए बरसते थे। राम-सीता विवाह में लोग दिल खोल के कन्यादान देते थे। कलाकारों की यही आय हुआ करती थी।





                                           




रामायण में मेरा सबसे प्रिय पात्र लक्ष्मण  है। काफी सालों तक यह इच्छा भी रही कि एक बार यह पात्र रामलीला में करूँ पर कभी किसी पर जाहिर करने का साहस नहीं हुआ। मोहल्ले की रामलीला का  लक्ष्मण परशुराम संवाद मैं कभी नहीं छोड़ता था। कल्पना करता रहता था कि मैं यदि लक्ष्मण की भूमिका मैं होता तो कैसे करता। 

जहाँ साधारण लोगों को खुशी मिलती थी, गरीब लोगों को अतिरिक्त आय के अवसर मिल जाते थे। इससे न सिर्फ हिन्दू बल्कि मुस्लिम समुदाय के लोग भी होते थे। बच्चों को हमारे देश की परंपरा से साक्षात्कार होता था। कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए मंच मिलता था और जीवन की एकसारता में सकारात्मक परिवर्तन आता था। वर्ष का एक तिहाई भाग उमंग और उल्लास के वातावरण में कटे तो इससे अच्छा क्या हो सकता है।


रामलीला अब भी होती है लेकिन हर मोहल्ले में नहीं। आज के व्यस्त जीवन में दूर जाकर दो-तीन घंटे रामलीला देखना असम्भव है और हम लोगों की अरुचि के कारण के कारण यह हर मोहल्ले में नहीं हो पाती/ लोग इच्छुक तो होते हैं परन्तु उनके पास न धन होता है, न कलाकार और न ही दर्शक/

रामलीला श्रवणकुमार की मातृ-पितृ भक्ति से आरम्भ होती है और भारत मिलाप पर समाप्त होती है / दोनों ही बड़े प्रेरणादायक प्रसंग हैं / है न ? टीवी पर रामायण का सार दूसरे कार्यक्रमों में कहीं खो जाता है/ मंचित रामलीला की अनुभूति कुछ अलग ही होती है/ 








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सोमवार, 21 अगस्त 2017

जिंदगी


                               


                                    जिंदगी



ठहर जाती है कभी, कभी झट से फिसल जाती है,
वक़्त के कांच पर ओस की बूँद जैसी है जिंदगी |
गम में उलझ जाये तो रोये सी फड़फड़ाती है,
बयार खुशियों की चले, तो लहलहाती है जिंदगी |
कभी सब कुछ पाकर भी अधूरेपन से छटपटाती है,
कभी सब कुछ लुटाकर भी मुस्कुराती है जिंदगी |
कभी उमंगों की रेत से आँखों के किनारे महल बनाती है,
पर सच्चाइयों की लहरों को रोक नहीं पाती है जिंदगी |
दिल साँसों की धमकियाँ सहता रहे, तब भी गुज़र जाती है,
पछताना पड़े चाहे, नाजायज़ सपने से रिश्ते बनाती है जिंदगी |

ग़मों से लड़ते लड़ते कितनी ही बार चूर चूर हो जाती है,
फिर भी चुटकी भर खुशियों की राह निहारती है जिंदगी |

रविवार, 20 अगस्त 2017

अनाथ होने की तारीख




                     अनाथ होने की तारीख




कल सुबह  पंडित जी के छप्पर पर चाय पीने के लिए रुका था I  वहीँ बैठे थे ये सज्जन, ईंटों पर रखी पत्थर की पटरी पर I 
मुँह में गुटखा भरा था I मोबाइल सामने पंडित जी के काउंटर पर रखा था I मुंडन होने के बाद आध-आध इंच भर बाल उग आये थे I जिनके बीच चोटी वैसे ही लग रही थी जैसे खेत में बिजूका खड़ा होता है I उस व्यक्ति का चेहरा देखने की मेरी इच्छा नहीं हुई I 
"हमारे पापा गुजर गए न," अचानक वह बोला I मैंने तब भी उसकी ओर नहीं देखा I संवेदना जरूर उचकी I 
"अरे! कब ?" पंडित जी ने हाथ रोक कर पूछा I शायद शिष्टाचारवश I  
"सात तारिख को ," वह बोला, " एँ, नहीं, पांच तारिख को I " पंडित जी के चेहरे पर आश्चर्य तैर गया i मैंने भी उसकी ओर देखा i अब वह सर खुजा रहा था i 
सही तारिख शायद खोपड़ी से भी 'डिलीट' हो गयी थी i 
अब उसने मोबाइल उठा लिया और जुट गया पिता की मृत्यु की तारीख की खोज में i 
उसने मेरी चाय बेस्वाद कर दी थी i उठकर उसे 'नमन' करने को जी चाह रहा था i एक बार तो में पूछ ही बैठा था , "भाई साहब, तेरहवीं हो गयी?" लेकिन मैंने खुद को रोक लिया i 
करीब दो मिनट बाद वह उठा, दो कदम दूर गया, पीक थूककर मुँह खाली किया ओर वापस आकर बोला, " चार तारीख को, पंडित जी i 
पंडित जी ने राहत की सांस ली i 
चाय ख़तम होने तक मैं उसे घूरता रहा i 
सुबह-सुबह ऐसे महानुभावों से परिचय होना, पता नहीं, सौभाग्य था या दुर्भाग्य i 

भला अपने अनाथ होने की तारीख भी कोई भूल सकता है, ओर वो भी इतनी जल्दी ?