शनिवार, 15 जुलाई 2017

नाम गुम जायेगा....गुलज़ार





नाम गुम जायेगा....गुलज़ार 








"....रोज़गार के सौदों में जब भाव-ताव करता हूँ गानों की कीमत मांगता हूँ -सब नज्में आँख चुराती हैं और करवट लेकर शेर मेरे मूंह ढांप लिया करते हैं  सबवो शर्मिंदा होते हैं मुझसे मैं उनसे लजाता हूँ बिकनेवाली चीज़ नहीं पर सोना भी तुलता है तोले-माशों में और हीरे भी 'कैरट' से तोले जाते हैं .मैं तो उन लम्हों की कीमत मांग रहा था जो मैं अपनी उम्र उधेड़ के,साँसें तोड़ के देता हूँ नज्में क्यों नाराज़ होती हैं ?" 

गुलज़ार साहिब की शख्सियत और कविताओं के बारे में लिखना धुप को मुठ्ठी  में पकड़ने जैसा है | बारिश  की बूँदें पक्के  फर्श पर गिरें तो संगीत बजता है, मिटटी पर गिरें तो खुशबू आती है और रेत पर गिरें तो छेद करती हुई धंस जाती हैं | कविता आँखें पढ़ें या कान सुनें, जाकर धँसतीं दिल में है |

                                     कांच के ख्वाब हैं, आँखों में चुभ जायेंगे....

गुलज़ार साहिब की कविता के शब्द रोज़-मर्रा की भाषा के आम शब्द होते हैं | ऐसे शब्द जो कविता का हिस्सा भी बन सकते हैं, कभी शायद ही किसी ने सोचा हो पर सुनो तो लगता है जैसे शायद कविता के लिए ही बना था ये | सुनने में इतना अच्छा तो पहले कभी लगा ही नहीं ये |
हिंदी एक संभ्रांत भाषा है पर हिंदी के गूढ़ शब्दों की बजाय आम बोलचाल के शब्दों का ऐसा अनूठा ताना-बाना बुनते हैं गुलज़ार साहिब कि पढ़ने और सुनने वालों पर जादू हो जाता है | गुलजार साहिब की कविताओं का अपना मिज़ाज़ होता है | जितनी बार पढ़ी जाए, अर्थ गहरा होता जाता है |


"मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन "



कल्पना शब्द का विस्तार कितना होगा? गुलज़ार साहिब के गीतों और कविताओं को पढ़ने के बाद समझ आ जाता है कि इस प्रश्न का कोई औचित्य नहीं है | कल्पना के विस्तार कि सीमा निर्धारित कर पाना असंभव है | " जहाँ न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि " का तात्पर्य आँखों के आगे तैरहै |

वो गीत लिखते हैं और 'प्यार' क्या है समझा देते हैं | कौन इन शब्दों को चुनौती  दे सकता है...

" हमने देखी है उन आँखों कि महकती खुशबू
हाथ से चुके इसे रिश्तों का इलज़ाम न दो
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो |

प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं
एक ख़ामोशी है, सुनती है, कहा करती है
न ये बुझती है, न रुकती है, न ठहरी है कहीं
नूर की बूँद है सदियों से बहा करती है

मुस्कुराहट सी खिली रहती है आँखों में कहीं
और पलकों पे उजाले से झुके रहते हैं
होंठ कुछ कहते नहीं, काँपते होंठों पे मगर
कितने ख़ामोश से अफ़साने रुके रहते हैं | "

इंटरनेट पर इस गीत के बोल जहाँ भी पढ़ें होंगे, उसके नीचे कमेंट पढ़िए | लोगों ने लिखा है, " दिस सॉन्ग है चेंज्ड माय लाइफ " | और कितने गीतों के लिए ऐसी प्रतिक्रिया पढ़ी है आपने ?

गुलज़ार साहब को लफ्जों को बुनने में कमाल की महारत हासिल है। आत्मा दिखती नहीं पर जिन्दगी की आत्मा दिखती है समपूरण सिहँ कालरा जी के शब्दों में।

ऐ जिंदगी, गले लगा ले...

या फिर

तुझसे नाराज नहीं जिंदगी,हैरान हूँ मैं ....


श्रोता, सहर्ष इन लफ्जों से जुड़ जाता है क्योंकि जिंदगी बसती है इन गीतों में।इन कविताओं के शब्द किसी आम आदमी की अलमारी में अलग से रखे आने-जाने के कपड़े पहन कर नहीं निकलते या किसी अमीर की तरह स्पेशल दिन के लिए किसी मंहगे शोरूम से खरीदे कपड़ों में सजे नहीं होते। ये तो मन के  ड्राइंग रूम में जैसे बैठे होते हैं वैसे ही चल देते हैं और खूब रंग जमाते हैं।

गुलज़ार साहब की कविता गैरपारंपरिक है। उपमाएँ अनूठी हैं। ख्वाब कहीं काँच के हैं तो कहीं सात रंग के। कभी रास्ते शिकायत करने लगते हैं तो कभी गले लगा लेते हैं। पहाड़ सबक देते हैं कभी तो कभी नदियाँ। मानवीकरण का इससे अद्भुत उपयोग कभी किसी ने नहीं किया।


किताबे झांकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है 
महीनों अब मुलाकाते नही होती
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थी अब अक्सर
गुजर जाती है कंप्युटर के परदों पर
बड़ी बेचैन रहती है किताबे ....
इन्हे अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती है ..

जो कदरें वो सुनाती थी
की जिन के सैल कभी मरते थे
वो कदरें अब नज़र आती नही घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थी
वह सारे उधडे उधडे हैं
कोई सफहा पलटता हूँ तो एक सिसकी निकलती है
कई लफ्जों के माने गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नही उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिटटी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी है
गिलासों ने उन्हें मतरुक कर डाला 

जुबान पर जायका आता था जो सफहे पलटने का
अब उंगली क्लिक करने से बस इक झपकी गुजरती है
बहुत कुछ तह बा तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था ,कट गया है
कभी सीने पर रख कर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे ,छुते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने ,गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे !!







गुलज़ार साहब की हर एक नज्म एक नायाब तोहफा है शब्दों की मालाओं का शौक रखने वालों के लिए बेशकीमती कलेक्शन हैं ये नज़्में l

नज़्म उलझी हुई है सीने में  
नज़्म उलझी हुई है सीने में 
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर 

उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह 

लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं 

कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम 

सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है 

इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी

गुलज़ार साहब कहते हैं...



"मेरे लिए यह चुनाव कर पाना बेहद मुश्किल है कि मेरी अब तक की सबसे पसंदीदा कविता कौन सी है क्योंकि ऐसा करने पर बाक़ी सारी कविताएं बेकार हो जाती हैं."



"अलग-अलग मौक़ों पर अलग-अलग नज़्मों की अहमियत होती है. मेरे ख़्याल से किसी भी शायर के लिए यह मुमक़िन नहीं कि वह कोई एक ऐसी कविता बता सके, जो उसे सबसे ज़्यादा प्रिय हो. हां, यह ज़रूर पूछा जा सकता है कि आज मुझे कौन सी कविता अच्छी लग रही है या यह पूछा जा सकता है कि कल कौन सी कविता मुझे पसंद थी."


कुछ गीत ऐसे होते हैं जो तभी सार्थक लगते हैं जब आप कहानी जानते हों या उन पर हो रहे अभिनय को देख रहे हों । कुछ गीत ऐसे भी होते हैं जिन्हें आप जब सुनें तब वो तस्वीर देखें जिनमें अभिनेता भी आप हों और कहानी भी आपकी हो। ऐसे गीत और उन्हें रचने वाला गीतकार अमर हो जाता है। 


तुम पुकार लो तुम्हारा इंतजार है


हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिए


मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है

कतरा-कतरा मिलती है


तुम आ गए हो नूर आ गया है

तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिक़वा तो नहीं


जब से तेरे नाम की मिश्री होंठ लगायी है







लिखता रहूँ तो लिस्ट बहुत लम्बी हो जाएगी और इस पशोपेश में तो हूँ ही कि किसे शामिल करूँ और किसे छोड़ दूँ 
बस ये समझिये कि इस पोस्ट के बहाने  'गुलज़ार' नाम के कविताओं के तीर्थ घूम आया हूँ l


और अंत में गुलज़ार साहब द्वारा कलमबद्ध मेरी प्रिय रचना....


इक दफा वो याद है तुमको 
बिन बत्ती जब साइकिल का चालान हुआ था 
हमने कैसे भूखे नंगे बेचारों सी एक्टिंग कि थी
हवलदार ने उल्टा एक अठ्ठनी देकर भेज दिया था 
एक चवन्नी मेरी भी थी...

वो भिजवा दो....

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