गुरुवार, 8 जून 2017

मंडी


किसान सरकार से दुखी नहीं है| न मौसम से | न अपनी किस्मत से और न भगवान् से |

दरअसल, हमारे देश में लोग काम करने से ज्यादा आसानी से पैसा कैसे कमाया जाये इस फन में माहिर हैं | दूसरे की मेहनत पर ऐश कैसे की जाए, ये एक कला है | लोग सरकारी नौकरी इसलिए पाना चाहते हैं क्योंकि   वहाँ काम काम, पैसा ज्यादा होता है| ऊपर की आमदनी का भी पूरा स्कोप होता है |




                                                                                      मंडी 


तड़के तीन बजे -गाँव वालों के लिए नया दिन शुरू हो जाता है। शहर वाले अभी थोड़ी देर पहले ही सोए होते हैं।
मंडी के मेन फाटक को पार करते ही एक चाय वाला इतना मुस्कुरा  रहा है मानो ऊपरवाले ने उसके होंठ वैसे ही बनाएँ हों। रोता होगा तो भी वैसा ही दिखता होगा वो। गल्ले के बराबर में धुप-बत्ती का पूरा सोटा सुलगा दिया है | बीच बीच में भजन गुनगुना ले रहा है |पठ्ठे की बोहनी  की केतली तीस चाय की चढ़ी है।


एक लड़का दौड़ कर आया , "आज बैंगन बीस, टमाटर पच्चीस, पालक दस, गोभी-मूली पाँच रुपये धड़ी," बोला और पलट गया। 
चबूतरे पर बीड़ी पीते पच्चीस -तीस आड़तियों ने न उसकी ओर देखा न उसके जाने के बाद कोई प्रतिक्रिया दी। ऐसा लगा जैसे कोई भक्त जल्दी में पत्थर की मूर्ति के सामने कुछ बड़बड़ा कर चला गया हो। हाँ, चाय वाले ने सुना और शायद गाँठ में बाँध भी लिया।

उसके लड़के केतलियाँ के साथ आज का भाव भी अंदर छोड़ आए थे। आड़तियों ने चाय खत्म करके फिर बीड़ियाँ सुलगा लीं थीं।


पौ फटी। मंडी में रौनक बढ़ने लगी थी। बाहर ट्रेक्टर, ट्रक, छोटे हाथी, घोड़े और बैल गाड़ियों में लदलद कर ताजी सबि्जयाँ और किसानों की उम्मीदें भी पहुँचने लगी थी। 


 किसानों की चहचहाहट और उत्तरप्रदेश की कामचलाऊ गरीब स्ट्रीट लाइट्स में चमचमाती उनकी आँखों की रौशनी बता रही थी आज उम्मीद कुछ ख़ास है जैसे सास को बहू के पहले जापे के वक़्त होती है |

ऊंघते आढ़ती भी अब चुस्त हो गए थे |

किसान आते, आढ़तियों से मिलते | बातचीत होती | किसान मुँह बिचकाते, गर्दन हिलाते और घिसटती उम्मीद के साथ अंदर बढ़ जाते कि शायद भीतर किसी और दुनिया के लोग हों और मन मुताबिक भाव मिल जाए |
दिन चढ़ने लगा | गाड़ियां लदी खड़ी हैं | चाय-वाले, गुटखा-बीड़ी वाले, दस-रूपये प्लेट छोले-भठूरे वाले एक-एक बार अपना गल्ला खाली करके नोट अंटी  कर चुके हैं | किसान बेचारे मुरझाये चेहरों, आँखों में बुझा अलाव लिए उस ही चबूतरे पर गुमसुम बैठे हैं जिस पर उनके यहाँ आने से पहले ही उनका आज का ज्योतिषफल रच दिया गया था |

आखिर दो बजे, किसानों को आढ़तियों के तय किये भाव पर ही सौदा देना पड़ा | 

थोक में वो माल दोगुने में गया | मसलन बैगन पचास का धड़ी | और गली मोहल्ले में सब्ज़ी वालों ने कॉलोनियों की औक़ात के हिसाब से भाव तय किये | यानी, सबने अपने भाव पर वो सौदा बेचा जो उसने पैदा नहीं किया था | सिवाय उसके जिसने मिटटी से गुहार लगाई, सूरज से लोहा लिया, बादलों  के आगे गिड़गिड़ाया,और अपने  बच्चों   को भूखा सुलाया , वो ही बस, उसे अपनी मेहनत की कीमत पर नहीं बेच पाया |

चायवाला, पान-बीड़ी-गुटखे वाला, आढ़ती, सब उम्मीद से ज्यादा ले गए पर किसान, उम्मीद के आस-पास भी फटक नहीं पाया |



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