शुक्रवार, 10 मार्च 2017

मायूस बुढ़ापा



                                                         
                                                                मायूस बुढ़ापा








पीठ पर कुछ सिहरन सी थी

खुजा कर देखा 
तो नाखुनों में खून भरा था
बोला- डाक लाया हूँ, पढ़ लो।
चिट्ठी क्या थी, शिकायत थी।




बिस्तर उकता गया था मुझसे
कहा था-सलवटें पैनी कर ली हैं 
तुम्हारा निक्कमेपन को ढांके
उभर भी गई हैं |






चादर ने रोएँ उगा लिए हैं 
शायद चुभते भी होगें तुम्हें
तकिये पर तुम्हारे सिर ने
एक परमानेंट गड्ढा बना दिया है
वो भी तैयार है
तुम्हारे कान काटने को।




गद्दे की रुई तो 

अधमरी हो गई है 

सासँ भी नहीं ले पाती
तुम्हारे बोझ तले
दबी जो रहती है।




अब अपनी उम्र का
हवाला मत देना
माना बूढ़े हो गए हो
पर जिन्दा हो 
मरे नहीं हो।




बाहर निकल कर सूरज से 
राम-राम श्याम-श्याम कर लोगे
हवा को अपने झीने बालों में
भरने दोगे
चाँद को देख मुस्कुरा दोगे
तो बिखर नहीं जाओगे|





छड़ी तो मँगा ली थी बेटे से
देखो वहाँ मुँह लटकाए टँगी है
उसे लेकर आसपास की
सड़कों को ही खटखटा आया करो।










पोता-पोती भी तो हैं 

                                             अपने तजुर्बों को 

                                            रोज थोड़ा थोड़ा

                                                उनके कानों में
बुरक दिया करो।





क्या दुख है
क्या चिन्ता
क्यों इतनी मायूसी?
क्यों मरने से पहले ही
मर रहे हो तुम?




बाँट लिया करो
कुछ अपना
कुछ औरों का।
मन मत थकने दो


तन भी नहीं हारेगा 

खर्च दिया करो हर घंटे



हँसी थोड़ी सी,
गालों की खाइयों को
बहुत भायेगा।




उम्र एक रकम है बस
रिकरिंग डिपोजिट जैसी
खुशियों का सूद न मिले
तो भला, क्या फायदा।

गुरुवार, 2 मार्च 2017

संस्कार





                                  संस्कार




सात कोस नंगे पाँव चले थे हम। परिक्रमा  में कच्चा रास्ता कम ही मिला था। वहाँ भी काँटों। ने कठिन परीक्षा ली थी। पक्की सड़क पर कंकड़ तलुओं को प्रताड़ित करते रहे थे। चार कोस बाद ही छाले हो गए थे। 

परिक्रमा यूं तो काफी बार लगाइ थी किंतु इस बार भागमभाग थी। अपनी कार थी नहीं। कुछ दिन पहले ही बेची थी और दूसरी ले नहीं पाए थे।


पिताजी ने किराये पर गाड़ी कर ली थी। ड्राइवर उम्र में पिताजी से दो चार साल ही कम होगा । शायद पार्क में मिलते-जुलते थे उनसे। मेरा एक दोस्त भी सपरिवार चलने का इच्छुक था।
गाड़ी में जगह थी इसलिए मैंने हाँ कर दी।


रावानगी से दो घंटे पहले ही पिता जी ने बताया कि गाड़ी नॅान-एसी है।
'जरुरतमंद है बेचारा।स्कूल के बच्चों को लाता लेजाता था।बीमारी की वजह से काम छूट गया।' हमारे बिगड़े चेहरे देखकर उन्होंने कहा।
न कुछ कह सकते थे न कुछ कर सकते थे।


जून के महीने में बिना एसी के मारुति वैन में सफर मजबूरी में ही किया जा सकता है। परिवार को  सैर सपाटे पर ले जाने के लिए नहीं। 


गाड़ी काफी खस्ता हाल थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि हम अपना उद्धार करने के लिए परिक्रमा को जा रहे थे या परोपकार करने को। 


साढ़े तीन घंटे का सफर आरामदायक तो नहीं था पर सबके साथ हँसते बोलते कट गया।


परिक्रमा शुरू करने को हुए तो ड्राइवर साहब ने अल्टीमेटम दे दिया, 'सुबह सात बजे तक आ जाना। मुझे बारह बजे तक हर हाल में दिल्ली पहुँचना है।'


मेरा दोस्त जानता था कि मैं चाहते हुए भी कुछ कह नहीं पाउँगा। सो वह चुप नहीं रहा।
'दादा, ऐसी एमरजेंसी थी तो आए ही क्यों। मना कर देते तो हम किसी और को ले आते।'
पिता जी ने बीच में ही बोल दिया,' कोशिश करेंगे।' हम जानते थे और शायद ड्राइवर भी कि उनका मतलब है कि हम पक्का सात बजे तक पहुँच जाएंगे फिर चाहे हमें भाग भाग कर ही परिक्रमा क्यों न लगानी पड़े।


परिक्रमा शुरु हुई । माँ-पिताजी ने रिक्शा ले  ली थी। लगभग आठ घंटे थे हमारे पास। छड़े होते तो आराम से पाचँ साढ़े पाचँ घंटों में इक्कीस किलोमीटर टाप जाते।पर बच्चों के साथ आठ घंटे भी कम थे।फिर सड़क नापने को तो गए नहीं थे हम। बहुत सी जगह रुकना पड़ता है।


खैर, सुबह साढ़े सात बजे हम ड्राइवर साहब के पास पहुँच गए थे। बस चाय पीने की इच्छा ड्राइवर को जताई। उन्होंने जवाब दिए बिना गाड़ी दौड़ा दी। हमें लगा शायद हाईवे पर रोकेंगे। हम सब्र रखे बैठे रहे। हाईवे पर मुड़ते ही मैंने कहा, 'किसी ठीक सी जगह पर रोक लीजिएगा। चाय पी लेंगे। बच्चे भी कुछ खा लेंगे।'


'गाड़ी तो अब दिल्ली जाकर ही रुकेगी।' वह ऐसे बोला जैसे हम उसकी नानॅस्टाप रोडवेज़ बस में बैठे हों।


'रोक ले, भाई। आधे घंटे की बात है।' पिता जी ने विनती करते हुए कहा।
'बाऊजी, आधे घंटे तो आप पहले ही देर कर चुके हो। अब और नहीं हो सकता।' ड्राइवर साहब कुछ ज्यादा ही अक्खड़ थे।
पिता जी तो चुप हो गए लेकिन मुझसे रहा नहीं गया।
'क्यों नहीं रोकोगे आप गाड़ी? ये सारी बातें आपको पहले बतानी चाहिए थीं। हमें ठीक लगता तभी आते हम।' मैंने बोल दिया।
ड्राइवर ने अनसुना कर दिया और गाड़ी चलाता रहा।


'आप गाड़ी रोकिये। यहीं रोकिये।' मैंने थोड़ा तैश में आकर कहा।


'हमारा काम लाना लेजाना था। बीच बीच में रुकते-रुकाते थोड़ा ही चलेंगे हम।'
'बड़े अजीब आदमी हो। आप पर तरस खाकर ले आए थे आपको। आपकी आदतें और स्वभाव बता रहा है कि आपकी ऐसी हालत क्यों है।' गुस्से ने मेरे लहजे में कड़वाहट घोल दी थी।


कुछ जवाब आता उससे पहले ही ड्राइवर के पास बैठे पिता जी ने गर्दन घुमाई और कहा,' होल्ड योर टंग।'


मैंने माँ की तरफ देखते हुए कहा, 'क्या गलत कहा मैंने?'
'बुजुर्गों से ऐसे बात की जाती है क्या?यह ही सिखाया है हमने तुम्हे ?'


'अंकल जी, पहले तो आराम से ही बोला था। ये भी कहाँ सुन रहे हैं।' 
मेरा दोस्त बोला।


'हम तो चलिये रह लेंगे चाय के बिना पर बच्चे भी तो हैं।'


'बलबीर, तू गाड़ी रोक।' पिता जी गुस्से से बोले। 


ड्राइवर ने ब्रेक लगा दिए।

 'अब तू तब चलेगा जब ये तुझसे माफी मांग लेगा।' पिता जी ने कहा और उतरकर खड़े हो गए।

मुझे ड्राइवर से माफी माँगनी ही पड़ी। गुस्से ने थकान भी चूस ली थी। रास्ते भर कोई कुछ नहीं बोला। 
पिता जी ने संस्कारों की दुहाई दी थी लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरी गल्ती क्या थी।


पिता जी अब नहीं हैं लेकिन ये वाकया याद करके गुस्सा नहीं आता | अच्छा लगता है और सीख मिलती है कि सिद्धांतों और संस्कारों की कोई कीमत नहीं होती | वो अपनी जगह पर ही रहने चाहिए चाहे कैसी भी परिस्तिथि हो |