गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

सर्दियाँ -तब और अब




                     सर्दियाँ -तब और अब





तब गली से न मोटर साइकिल गुजरती थी
न घमंड भरा हार्न बजाती धुआँ की गाड़ियाँ
सूरज भी तब खुजमिजाज सा था
पुचकारता था, चुटकुले सुनाता था 
धूप बहुत लाड़ लड़ाती थी
हवा काली कलूटी नकचड़ी नहीं थी



खड़ंजे वाली साफ गली में

फुरसत की सुबह होती थी
प्रोजेक्ट और होमवर्क सारी 
छुट्टियाँ नहीं पी जाते थे।
सूरज का बुलावा आते ही
चारपाई पर दादाजी के साथ 
गली की रौनक बन जाते थे। 

गन्ना चूसते मीठे सवाल करते रहते
पर दद्दा के कान  रेडियो पर लगे होते थे
मंजुल की हिन्दी की कमेन्टरी
गावस्कर और विश्वनाथ की रेंगती बैटिंग
बाथॅम और बाबॅ विलीस की
कुटिल मुस्कानें रेडियो पर भी नजर आती थी
तब हर ओवर के बाद मशहूरियाँ 
नहीं आती थीं
हाँ, हर ओवर के बाद दद्दा
हमारे उल्टे सवालों का
पुल्टा जवाब देते थे



कटोरी में धँसा स्टील का गिलास 

भर कर जब दद्दा की चाय आती थी
आधी कटोरी फूंक मिला कर 
गुनगुनी चाय मुझे मिल जाती थी 
खबरें सारी बता कर भी
अखबार खाट पर पड़ा रहता था
जानता था, मूँगफली जब खाई जाएगी
छिलके उसे ही समेटने  होंगे।


तब मनमुटाव ज्यादा नहीं जी पाता था
इमोटीकानॅ असली होते थे
मुस्काने सस्ती होती थी
रिश्तों को गहनों से भी ज्यादा 
सहेजा जाता था।
पड़ोसी कभी कभी दिखने वाले
अंकल आंटी नहीं
चाचा चाची होते थे।
कंपकंपाने वाली ठंड का गुस्सा 
मन में प्यार की गरमाहट से
पिघल जाता था।




अब गुड़ की शकरकंदियाँ नहीं बनती हैं

अब जाड़ों की धूप की बाट 
जोहती चारपाइयाँ नहीं बिछती हैं।
अब दादा-दादी को रखने वाले
बड़े बड़े दिल नहीं होते हैं।
अब पिता की चारपाई पर
बेटे पायते नहीं बैठा करते हैं 
अब बस बदरंग सी सर्दी होती है
गुलाबी जाड़े नहीं होते हैं।
तब ठिठुरते तन को 
मन गरमाहट देता था
अब तन मन दोनों ठिठुरते हैं
ब्लोअर चलाने पड़ते हैं।

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

सत्यनारायण भगवान की कथा




सत्यनारायण भगवान की कथा



अर्सा हो गया

मम्मी पापा व्रत लेते थे
सत्यनारायण भगवान की कथा का
हम भाई बहनों में से
किसी एक के लिए।
हम चार थे
सो कथा जल्दी-जल्दी होती थी।
कहानी हमें रट गई थी
कसार पर चार चम्मच चरणामृत
और कटे हुए केले का प्रसाद 
बहुत भाता था।
फिर सब बदल गया
हम बड़े हो गए
अब घर में काम
हमारी मर्ज़ी से होते थे

हम मम्मी पापा जितने
आस्तिक भी नहीं हैं।
या शायद हमें अपने गृह 
कभी भारी लगे ही नहीं ।

उन्हें तो शायद
मम्मी-पापा ने इतना शांत 
कर दिया था कि
वह हम पर 
कभी कुपित हुए ही नहीं  
आज भी सत्यनारायण भगवान नहीं
बड़ी सी कढ़ाई में माँ  भूनती थी 
बस उस कसार की याद आ गई
आज मम्मी पापा की हमारे लिए
फिक्र की याद आ गई।

सोमवार, 28 अगस्त 2017

रामलीला








                                रामलीला 






कल ऐसे ही अपने विधार्थियों से पूछ बैठा कि उनमें से किस-किस ने रामलीला देखी है। उनके उत्तर सुन कर बड़ा आश्चर्य हुआ। कुछ ही ने रामलीला देखी थी वह भी एक या दो दिन । हाँ, टीवी पर रामायण बहुत लोगों ने देखी थी।
दुख हुआ कि एक परम्परा और सास्कृतिक धरोहर मिटने के कगार पर है। इस बात का भी क्षोभ हुआ कि हमारी नई पीढ़ियाँ कितनी शानदार चीजों से वंचित कर दी गई है।



                              




फिर मन में प्रश्न उठे कि क्या रामलीला की  प्रासंगिकता रामचंद्र जी के जीवन मूल्यों को नई पीढ़ी तक पहुँचाने मात्र ही है? यदि हाँ, तो टीवी पर ही देख लेने में क्या बुराई है?

मैं रामलीला को किसी विशेष धर्म के प्रचार व प्रसार के प्रयास के रूप में नहीं देखता।  ऐसे आयोजनों से समाज में उत्साह और उल्लास रहता है। लोग आनंद में रहते हैं तो खर्च करते हैं। सभी का भला होता है।
सोच के देखिए पूरे पैंतीस दिन रौनक- सड़क पर भी और मन में भी। चहल-पहल,  सजे हुए पंडाल, लाउड स्पीकर पर ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैंजनिया 
बजता रहता है, दशरथ का विलाप, जटायु का करहाना,  रावण की गरजना और अट्टहास गूँजता है मनोरंजन की पराकाष्ठा होती है। फिर यह चिंतन उल्टी चाल चलते हुए मुझे मेरे बचपन में घसीट ले गया।



हमारे मोहल्ले में प्रति वर्ष रामलीला का मंचन होता था। कनागत खत्म होते ही मंदिर में रामलीला की रिहर्सल शुरू हो जाती थी। मुख्य पात्र निश्चित रहते थे और बहुत से लोग एक से अधिक भूमिकाएँ करते थे।
अक्टूबर में हल्की ठंड पड़ने लगती थी। बिना बाजू का स्वेटर माँ जबरदस्ती पहना देती थी। मुझे पहले भेजा जाता था कुर्सियाँ घेरने के लिए। आठ बजे लगभग मंच का पर्दा उठता था। 


उल्लास और उत्साह का माहौल रहता था। पंडाल के बाहर खोमचों की कतारें शाम से ही लग जाया करती थीं। मूंगफली, चाट-पकौड़ी, आइसक्रीम, गुब्बारे, धनुष-बाण, गदा, रामायण के पत्रों के मुखौटे, नकली मूँछे, और हाँ, सरकंडों वाला साँप, याद है न, जो बड़ा और छोटा हो जाता है , सब मिलता था / रामलीला देखते रहिये, मुँह चलाते रहिये / शायद पूरे दिन में वो इतना ना कमा पाते हों जितना शाम से रात तक कमा लेते थे। उन लोगों पर रामचंद्र जी की कृपा उन दस दिनों में खूब होती थी।



                           





नुक्कड़ के दर्जी की दुकान पर काम करने वाला पतला-दुबला लड़का आसिफ सीता का रोल करता था। गजराज भैया  दूध बेचते थे । शरीर और चेहरा भारी-भरकम था। दो महीने पहले से ही मूँछे बढ़ानी शुरू कर देते थे। ढेढ़ इंच चौढ़ी और नथुनों के दोनों ओर चार-चार इंच लम्बी, घनी और किनारों पर दो-तीन बार घूमती हुई काली स्याह मूँछ देखकर छोटे बच्चे तो डर ही जाया करते थे। उनका दमदार ठहाका और कंपा देने वाली आवाज उन्हें साक्षात लंकापति रावण का स्वरूप देती थी। बाकी सब कुछ तो किराए पर आता था लेकिन रावण की पूरी वेशभूषा वे अपनी पर्सनल खरीद कर लाए थे किनारी बाजार से। 
पीछे वाली गली में रहने वाले देवदत्त भाई दशरथ, परशुराम और सुग्रीव , तीनों पात्र बखूबी निभाते थे। उनके दशरथ विलाप के अभिनय पर ईनामों की झड़ी लग जाती थी। ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन और कभी कभी तो एक सौ एक भी। गज्जू भाईसाहब पर भी खूब रुपए बरसते थे। राम-सीता विवाह में लोग दिल खोल के कन्यादान देते थे। कलाकारों की यही आय हुआ करती थी।





                                           




रामायण में मेरा सबसे प्रिय पात्र लक्ष्मण  है। काफी सालों तक यह इच्छा भी रही कि एक बार यह पात्र रामलीला में करूँ पर कभी किसी पर जाहिर करने का साहस नहीं हुआ। मोहल्ले की रामलीला का  लक्ष्मण परशुराम संवाद मैं कभी नहीं छोड़ता था। कल्पना करता रहता था कि मैं यदि लक्ष्मण की भूमिका मैं होता तो कैसे करता। 

जहाँ साधारण लोगों को खुशी मिलती थी, गरीब लोगों को अतिरिक्त आय के अवसर मिल जाते थे। इससे न सिर्फ हिन्दू बल्कि मुस्लिम समुदाय के लोग भी होते थे। बच्चों को हमारे देश की परंपरा से साक्षात्कार होता था। कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए मंच मिलता था और जीवन की एकसारता में सकारात्मक परिवर्तन आता था। वर्ष का एक तिहाई भाग उमंग और उल्लास के वातावरण में कटे तो इससे अच्छा क्या हो सकता है।


रामलीला अब भी होती है लेकिन हर मोहल्ले में नहीं। आज के व्यस्त जीवन में दूर जाकर दो-तीन घंटे रामलीला देखना असम्भव है और हम लोगों की अरुचि के कारण के कारण यह हर मोहल्ले में नहीं हो पाती/ लोग इच्छुक तो होते हैं परन्तु उनके पास न धन होता है, न कलाकार और न ही दर्शक/

रामलीला श्रवणकुमार की मातृ-पितृ भक्ति से आरम्भ होती है और भारत मिलाप पर समाप्त होती है / दोनों ही बड़े प्रेरणादायक प्रसंग हैं / है न ? टीवी पर रामायण का सार दूसरे कार्यक्रमों में कहीं खो जाता है/ मंचित रामलीला की अनुभूति कुछ अलग ही होती है/ 








#रामलीला #मंचन #हिंदी #लेख #परम्परा #संस्कृति #रामचन्द्रजी # राम-सीता #अयोध्या

सोमवार, 21 अगस्त 2017

जिंदगी


                               


                                    जिंदगी



ठहर जाती है कभी, कभी झट से फिसल जाती है,
वक़्त के कांच पर ओस की बूँद जैसी है जिंदगी |
गम में उलझ जाये तो रोये सी फड़फड़ाती है,
बयार खुशियों की चले, तो लहलहाती है जिंदगी |
कभी सब कुछ पाकर भी अधूरेपन से छटपटाती है,
कभी सब कुछ लुटाकर भी मुस्कुराती है जिंदगी |
कभी उमंगों की रेत से आँखों के किनारे महल बनाती है,
पर सच्चाइयों की लहरों को रोक नहीं पाती है जिंदगी |
दिल साँसों की धमकियाँ सहता रहे, तब भी गुज़र जाती है,
पछताना पड़े चाहे, नाजायज़ सपने से रिश्ते बनाती है जिंदगी |

ग़मों से लड़ते लड़ते कितनी ही बार चूर चूर हो जाती है,
फिर भी चुटकी भर खुशियों की राह निहारती है जिंदगी |

रविवार, 20 अगस्त 2017

अनाथ होने की तारीख




                     अनाथ होने की तारीख




कल सुबह  पंडित जी के छप्पर पर चाय पीने के लिए रुका था I  वहीँ बैठे थे ये सज्जन, ईंटों पर रखी पत्थर की पटरी पर I 
मुँह में गुटखा भरा था I मोबाइल सामने पंडित जी के काउंटर पर रखा था I मुंडन होने के बाद आध-आध इंच भर बाल उग आये थे I जिनके बीच चोटी वैसे ही लग रही थी जैसे खेत में बिजूका खड़ा होता है I उस व्यक्ति का चेहरा देखने की मेरी इच्छा नहीं हुई I 
"हमारे पापा गुजर गए न," अचानक वह बोला I मैंने तब भी उसकी ओर नहीं देखा I संवेदना जरूर उचकी I 
"अरे! कब ?" पंडित जी ने हाथ रोक कर पूछा I शायद शिष्टाचारवश I  
"सात तारिख को ," वह बोला, " एँ, नहीं, पांच तारिख को I " पंडित जी के चेहरे पर आश्चर्य तैर गया i मैंने भी उसकी ओर देखा i अब वह सर खुजा रहा था i 
सही तारिख शायद खोपड़ी से भी 'डिलीट' हो गयी थी i 
अब उसने मोबाइल उठा लिया और जुट गया पिता की मृत्यु की तारीख की खोज में i 
उसने मेरी चाय बेस्वाद कर दी थी i उठकर उसे 'नमन' करने को जी चाह रहा था i एक बार तो में पूछ ही बैठा था , "भाई साहब, तेरहवीं हो गयी?" लेकिन मैंने खुद को रोक लिया i 
करीब दो मिनट बाद वह उठा, दो कदम दूर गया, पीक थूककर मुँह खाली किया ओर वापस आकर बोला, " चार तारीख को, पंडित जी i 
पंडित जी ने राहत की सांस ली i 
चाय ख़तम होने तक मैं उसे घूरता रहा i 
सुबह-सुबह ऐसे महानुभावों से परिचय होना, पता नहीं, सौभाग्य था या दुर्भाग्य i 

भला अपने अनाथ होने की तारीख भी कोई भूल सकता है, ओर वो भी इतनी जल्दी ?



शनिवार, 15 जुलाई 2017

नाम गुम जायेगा....गुलज़ार





नाम गुम जायेगा....गुलज़ार 








"....रोज़गार के सौदों में जब भाव-ताव करता हूँ गानों की कीमत मांगता हूँ -सब नज्में आँख चुराती हैं और करवट लेकर शेर मेरे मूंह ढांप लिया करते हैं  सबवो शर्मिंदा होते हैं मुझसे मैं उनसे लजाता हूँ बिकनेवाली चीज़ नहीं पर सोना भी तुलता है तोले-माशों में और हीरे भी 'कैरट' से तोले जाते हैं .मैं तो उन लम्हों की कीमत मांग रहा था जो मैं अपनी उम्र उधेड़ के,साँसें तोड़ के देता हूँ नज्में क्यों नाराज़ होती हैं ?" 

गुलज़ार साहिब की शख्सियत और कविताओं के बारे में लिखना धुप को मुठ्ठी  में पकड़ने जैसा है | बारिश  की बूँदें पक्के  फर्श पर गिरें तो संगीत बजता है, मिटटी पर गिरें तो खुशबू आती है और रेत पर गिरें तो छेद करती हुई धंस जाती हैं | कविता आँखें पढ़ें या कान सुनें, जाकर धँसतीं दिल में है |

                                     कांच के ख्वाब हैं, आँखों में चुभ जायेंगे....

गुलज़ार साहिब की कविता के शब्द रोज़-मर्रा की भाषा के आम शब्द होते हैं | ऐसे शब्द जो कविता का हिस्सा भी बन सकते हैं, कभी शायद ही किसी ने सोचा हो पर सुनो तो लगता है जैसे शायद कविता के लिए ही बना था ये | सुनने में इतना अच्छा तो पहले कभी लगा ही नहीं ये |
हिंदी एक संभ्रांत भाषा है पर हिंदी के गूढ़ शब्दों की बजाय आम बोलचाल के शब्दों का ऐसा अनूठा ताना-बाना बुनते हैं गुलज़ार साहिब कि पढ़ने और सुनने वालों पर जादू हो जाता है | गुलजार साहिब की कविताओं का अपना मिज़ाज़ होता है | जितनी बार पढ़ी जाए, अर्थ गहरा होता जाता है |


"मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन "



कल्पना शब्द का विस्तार कितना होगा? गुलज़ार साहिब के गीतों और कविताओं को पढ़ने के बाद समझ आ जाता है कि इस प्रश्न का कोई औचित्य नहीं है | कल्पना के विस्तार कि सीमा निर्धारित कर पाना असंभव है | " जहाँ न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि " का तात्पर्य आँखों के आगे तैरहै |

वो गीत लिखते हैं और 'प्यार' क्या है समझा देते हैं | कौन इन शब्दों को चुनौती  दे सकता है...

" हमने देखी है उन आँखों कि महकती खुशबू
हाथ से चुके इसे रिश्तों का इलज़ाम न दो
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो |

प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं
एक ख़ामोशी है, सुनती है, कहा करती है
न ये बुझती है, न रुकती है, न ठहरी है कहीं
नूर की बूँद है सदियों से बहा करती है

मुस्कुराहट सी खिली रहती है आँखों में कहीं
और पलकों पे उजाले से झुके रहते हैं
होंठ कुछ कहते नहीं, काँपते होंठों पे मगर
कितने ख़ामोश से अफ़साने रुके रहते हैं | "

इंटरनेट पर इस गीत के बोल जहाँ भी पढ़ें होंगे, उसके नीचे कमेंट पढ़िए | लोगों ने लिखा है, " दिस सॉन्ग है चेंज्ड माय लाइफ " | और कितने गीतों के लिए ऐसी प्रतिक्रिया पढ़ी है आपने ?

गुलज़ार साहब को लफ्जों को बुनने में कमाल की महारत हासिल है। आत्मा दिखती नहीं पर जिन्दगी की आत्मा दिखती है समपूरण सिहँ कालरा जी के शब्दों में।

ऐ जिंदगी, गले लगा ले...

या फिर

तुझसे नाराज नहीं जिंदगी,हैरान हूँ मैं ....


श्रोता, सहर्ष इन लफ्जों से जुड़ जाता है क्योंकि जिंदगी बसती है इन गीतों में।इन कविताओं के शब्द किसी आम आदमी की अलमारी में अलग से रखे आने-जाने के कपड़े पहन कर नहीं निकलते या किसी अमीर की तरह स्पेशल दिन के लिए किसी मंहगे शोरूम से खरीदे कपड़ों में सजे नहीं होते। ये तो मन के  ड्राइंग रूम में जैसे बैठे होते हैं वैसे ही चल देते हैं और खूब रंग जमाते हैं।

गुलज़ार साहब की कविता गैरपारंपरिक है। उपमाएँ अनूठी हैं। ख्वाब कहीं काँच के हैं तो कहीं सात रंग के। कभी रास्ते शिकायत करने लगते हैं तो कभी गले लगा लेते हैं। पहाड़ सबक देते हैं कभी तो कभी नदियाँ। मानवीकरण का इससे अद्भुत उपयोग कभी किसी ने नहीं किया।


किताबे झांकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है 
महीनों अब मुलाकाते नही होती
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थी अब अक्सर
गुजर जाती है कंप्युटर के परदों पर
बड़ी बेचैन रहती है किताबे ....
इन्हे अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती है ..

जो कदरें वो सुनाती थी
की जिन के सैल कभी मरते थे
वो कदरें अब नज़र आती नही घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थी
वह सारे उधडे उधडे हैं
कोई सफहा पलटता हूँ तो एक सिसकी निकलती है
कई लफ्जों के माने गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नही उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिटटी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी है
गिलासों ने उन्हें मतरुक कर डाला 

जुबान पर जायका आता था जो सफहे पलटने का
अब उंगली क्लिक करने से बस इक झपकी गुजरती है
बहुत कुछ तह बा तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था ,कट गया है
कभी सीने पर रख कर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे ,छुते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने ,गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे !!







गुलज़ार साहब की हर एक नज्म एक नायाब तोहफा है शब्दों की मालाओं का शौक रखने वालों के लिए बेशकीमती कलेक्शन हैं ये नज़्में l

नज़्म उलझी हुई है सीने में  
नज़्म उलझी हुई है सीने में 
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर 

उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह 

लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं 

कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम 

सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है 

इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी

गुलज़ार साहब कहते हैं...



"मेरे लिए यह चुनाव कर पाना बेहद मुश्किल है कि मेरी अब तक की सबसे पसंदीदा कविता कौन सी है क्योंकि ऐसा करने पर बाक़ी सारी कविताएं बेकार हो जाती हैं."



"अलग-अलग मौक़ों पर अलग-अलग नज़्मों की अहमियत होती है. मेरे ख़्याल से किसी भी शायर के लिए यह मुमक़िन नहीं कि वह कोई एक ऐसी कविता बता सके, जो उसे सबसे ज़्यादा प्रिय हो. हां, यह ज़रूर पूछा जा सकता है कि आज मुझे कौन सी कविता अच्छी लग रही है या यह पूछा जा सकता है कि कल कौन सी कविता मुझे पसंद थी."


कुछ गीत ऐसे होते हैं जो तभी सार्थक लगते हैं जब आप कहानी जानते हों या उन पर हो रहे अभिनय को देख रहे हों । कुछ गीत ऐसे भी होते हैं जिन्हें आप जब सुनें तब वो तस्वीर देखें जिनमें अभिनेता भी आप हों और कहानी भी आपकी हो। ऐसे गीत और उन्हें रचने वाला गीतकार अमर हो जाता है। 


तुम पुकार लो तुम्हारा इंतजार है


हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिए


मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है

कतरा-कतरा मिलती है


गुरुवार, 8 जून 2017

मंडी


किसान सरकार से दुखी नहीं है| न मौसम से | न अपनी किस्मत से और न भगवान् से |

दरअसल, हमारे देश में लोग काम करने से ज्यादा आसानी से पैसा कैसे कमाया जाये इस फन में माहिर हैं | दूसरे की मेहनत पर ऐश कैसे की जाए, ये एक कला है | लोग सरकारी नौकरी इसलिए पाना चाहते हैं क्योंकि   वहाँ काम काम, पैसा ज्यादा होता है| ऊपर की आमदनी का भी पूरा स्कोप होता है |




                                                                                      मंडी 


तड़के तीन बजे -गाँव वालों के लिए नया दिन शुरू हो जाता है। शहर वाले अभी थोड़ी देर पहले ही सोए होते हैं।
मंडी के मेन फाटक को पार करते ही एक चाय वाला इतना मुस्कुरा  रहा है मानो ऊपरवाले ने उसके होंठ वैसे ही बनाएँ हों। रोता होगा तो भी वैसा ही दिखता होगा वो। गल्ले के बराबर में धुप-बत्ती का पूरा सोटा सुलगा दिया है | बीच बीच में भजन गुनगुना ले रहा है |पठ्ठे की बोहनी  की केतली तीस चाय की चढ़ी है।


एक लड़का दौड़ कर आया , "आज बैंगन बीस, टमाटर पच्चीस, पालक दस, गोभी-मूली पाँच रुपये धड़ी," बोला और पलट गया। 
चबूतरे पर बीड़ी पीते पच्चीस -तीस आड़तियों ने न उसकी ओर देखा न उसके जाने के बाद कोई प्रतिक्रिया दी। ऐसा लगा जैसे कोई भक्त जल्दी में पत्थर की मूर्ति के सामने कुछ बड़बड़ा कर चला गया हो। हाँ, चाय वाले ने सुना और शायद गाँठ में बाँध भी लिया।

उसके लड़के केतलियाँ के साथ आज का भाव भी अंदर छोड़ आए थे। आड़तियों ने चाय खत्म करके फिर बीड़ियाँ सुलगा लीं थीं।


पौ फटी। मंडी में रौनक बढ़ने लगी थी। बाहर ट्रेक्टर, ट्रक, छोटे हाथी, घोड़े और बैल गाड़ियों में लदलद कर ताजी सबि्जयाँ और किसानों की उम्मीदें भी पहुँचने लगी थी। 


 किसानों की चहचहाहट और उत्तरप्रदेश की कामचलाऊ गरीब स्ट्रीट लाइट्स में चमचमाती उनकी आँखों की रौशनी बता रही थी आज उम्मीद कुछ ख़ास है जैसे सास को बहू के पहले जापे के वक़्त होती है |

ऊंघते आढ़ती भी अब चुस्त हो गए थे |

किसान आते, आढ़तियों से मिलते | बातचीत होती | किसान मुँह बिचकाते, गर्दन हिलाते और घिसटती उम्मीद के साथ अंदर बढ़ जाते कि शायद भीतर किसी और दुनिया के लोग हों और मन मुताबिक भाव मिल जाए |
दिन चढ़ने लगा | गाड़ियां लदी खड़ी हैं | चाय-वाले, गुटखा-बीड़ी वाले, दस-रूपये प्लेट छोले-भठूरे वाले एक-एक बार अपना गल्ला खाली करके नोट अंटी  कर चुके हैं | किसान बेचारे मुरझाये चेहरों, आँखों में बुझा अलाव लिए उस ही चबूतरे पर गुमसुम बैठे हैं जिस पर उनके यहाँ आने से पहले ही उनका आज का ज्योतिषफल रच दिया गया था |

आखिर दो बजे, किसानों को आढ़तियों के तय किये भाव पर ही सौदा देना पड़ा | 

थोक में वो माल दोगुने में गया | मसलन बैगन पचास का धड़ी | और गली मोहल्ले में सब्ज़ी वालों ने कॉलोनियों की औक़ात के हिसाब से भाव तय किये | यानी, सबने अपने भाव पर वो सौदा बेचा जो उसने पैदा नहीं किया था | सिवाय उसके जिसने मिटटी से गुहार लगाई, सूरज से लोहा लिया, बादलों  के आगे गिड़गिड़ाया,और अपने  बच्चों   को भूखा सुलाया , वो ही बस, उसे अपनी मेहनत की कीमत पर नहीं बेच पाया |

चायवाला, पान-बीड़ी-गुटखे वाला, आढ़ती, सब उम्मीद से ज्यादा ले गए पर किसान, उम्मीद के आस-पास भी फटक नहीं पाया |



#किसान #मंडी #आढ़ती #मंदसौर #सरकार #क़र्ज़ #आत्महत्या #कर्जमाफी #मध्यप्रदेश 




शुक्रवार, 10 मार्च 2017

मायूस बुढ़ापा



                                                         
                                                                मायूस बुढ़ापा








पीठ पर कुछ सिहरन सी थी

खुजा कर देखा 
तो नाखुनों में खून भरा था
बोला- डाक लाया हूँ, पढ़ लो।
चिट्ठी क्या थी, शिकायत थी।




बिस्तर उकता गया था मुझसे
कहा था-सलवटें पैनी कर ली हैं 
तुम्हारा निक्कमेपन को ढांके
उभर भी गई हैं |






चादर ने रोएँ उगा लिए हैं 
शायद चुभते भी होगें तुम्हें
तकिये पर तुम्हारे सिर ने
एक परमानेंट गड्ढा बना दिया है
वो भी तैयार है
तुम्हारे कान काटने को।




गद्दे की रुई तो 

अधमरी हो गई है 

सासँ भी नहीं ले पाती
तुम्हारे बोझ तले
दबी जो रहती है।




अब अपनी उम्र का
हवाला मत देना
माना बूढ़े हो गए हो
पर जिन्दा हो 
मरे नहीं हो।




बाहर निकल कर सूरज से 
राम-राम श्याम-श्याम कर लोगे
हवा को अपने झीने बालों में
भरने दोगे
चाँद को देख मुस्कुरा दोगे
तो बिखर नहीं जाओगे|





छड़ी तो मँगा ली थी बेटे से
देखो वहाँ मुँह लटकाए टँगी है
उसे लेकर आसपास की
सड़कों को ही खटखटा आया करो।










पोता-पोती भी तो हैं 

                                             अपने तजुर्बों को 

                                            रोज थोड़ा थोड़ा

                                                उनके कानों में
बुरक दिया करो।





क्या दुख है
क्या चिन्ता
क्यों इतनी मायूसी?
क्यों मरने से पहले ही
मर रहे हो तुम?




बाँट लिया करो
कुछ अपना
कुछ औरों का।
मन मत थकने दो


तन भी नहीं हारेगा 

खर्च दिया करो हर घंटे



हँसी थोड़ी सी,
गालों की खाइयों को
बहुत भायेगा।




उम्र एक रकम है बस
रिकरिंग डिपोजिट जैसी
खुशियों का सूद न मिले
तो भला, क्या फायदा।