शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

जन्मदिन



                                                                          जन्मदिन 




फैक्टरी के लिए निकल रहा था जब मेरी नजर हौदी पर कपड़े धो रही छुटकी पर पड़ी।  उसका कुरता सामने से फटा हुआ था।
'शाम को आते वक्त पाँच किलो गाजर ले आ आना। कल तेरा जन्मदिन है न। हलवा बनाऊँगी,' माँ बोल रही थीं। 

फटे कुरते से झाँकता बहन का पेट मुझे धिक्कार रहा था।

'गाजर के बाद माँ खोया भी मँगवाएगीं। शायद काजू किशमिश भी। दो सौ रुपयों में छुटकी का एक कुरता न आ जाएगा।' सोचते हुए मैं बाहर निकल गया। 'बड़की के पास भी शायद दो ही सूट हैं। हर दूसरे दिन वही पहने होती है। पीले वाले पर तो कितने रोएँ भी हैं। रंग भी उड़ चुका है।'

दसँवी में था जब पिताजी को फालिज मार गया था। दो साल माँ ने जैसे-तैसे अकेले घर चलाया बस इसलिए कि मेरी बारहवीं हो जाए। जो थोड़ा बहुत जमा था, सब खत्म हो गया।सरकारी नौकरियों के तीन फार्म भर चुका हूँ । हर बार माँ ग्यारह रुपये भगवान के आले में रखवा देती हैं। अब तक कुछ हुआ नहीं। शायद भगवान को रिश्वत कम लगी। 
सब जानते हैं कि सारे परिवार की आस मेरी नौकरी पर टिकी है पर शायद किस्मत अभी सोई है और भगवान को हम पर दया आई नहीं ।

पड़ोस में रहने वाले वीरेंद्र भाईसाहब की एक्सपोर्ट के कपड़े बनाने की फैक्टरी है । उन्होंने शायद तरस खाकर सुपरवाइजर रख लिया था मुझे। पाँच हजार रुपये देते थे। माँ खादी ग्रामोद्योग के थैले सीकर हजार दो हजार जुटा लेती थीं। घर चल जाता था।


कारीगरों के बनाए कपड़ों पर लटके फालतू धागे काटता था मैं और देखता था कहीं सिलाई छूटी तो नहीं | पर अपनी जिंदगी के उलझे धागे  हुए थे और उधड़ी सिलाई लगाने के शायद काबिल नहीं हुआ था मैं |

बहनों के बदहाल कपड़े  मुझे लानत  दे रहे थे और माँ को मेरा जन्मदिन मनाने  पड़ी थी। यह उनका पुत्रप्रेम था  या अपने तारनहार को खुश करने की कोशिश | पता नहीं, लेकिन मैं घुट रहा था। 


चिंता और ग्लानि को लादे कदमों ने घिसटते घिसटते मुझे फैक्टरी पहुँचा दिया था। वीरेंद्र भाई साहब वहाँ नहीं थे। मैंने सोच लिया था कि पाँच सौ रुपये एडवांस माँग कर दोनों बहनों के लिए एक-एक सूट खरीदूँगा। मैं मन में ठान चुका था कि इस बार मेरा जन्मदिन इसी तरह मनेगा। 

रास्ता मिल गया तो मैंने काम में ध्यान लगाया । भाई साहब का इंतजार भी था। बार-बार एक डर  मन में  गश्त लगा रहा था कि कहीं मालिक साहब आज फैक्टरी आए ही नहीं तो क्या होगा? हमारा भाग्य तो हमेशा हमारे आगे आगे ही चलता है न। 

लंच के बाद वीरेंद्र भाई साहब का स्कूटर फैक्टरी के बाहर रुका तो आँखों में उम्मीद चमक उठी। मैंने बड़ी हुमक के नमस्ते करी। उन्होंने भी हँस कर जबाव दिया।


उन्हें अच्छे मूड में देख मेरी हिम्मत बढ़ गई। मैं इंतज़ार करने लगा कि वो कब अपने आफिस में जाँए और मैं उनसे बात कर सकूँ। कारीगरों के पास घूमने के बाद वो मेरी टेबल पर आकर रुक गए। मुस्कुराते हुए बोले,' कल तेरा जन्मदिन है न?'


'आपको कैसे पता?' मैंने शर्माते हुए पूछा।


'तेरे घर पर ही बैठा था। अंकल जी का हालचाल पूछे काफी दिन हो गए थे |'


'ओह, माँ ने बताया होगा। वो ऐसे खुश हो रही हैं जैसे मेरा पहला जन्मदिन हो।'


'माँ हैं भाई,' वीरेंद्र भाई साहब बोले, 'जरा आफिस में आ ।'


मैं एडवांस माँगने की रिहर्सल करता हुआ उनके पीछे चल पड़ा। 
पर्स निकाल वो कुर्सी पर बैठ गए। तीन सौ रुपये मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोले, 'एक केक ले लेना मेरी तरफ से |'
मैं उन रुपयों की तरफ देखता रहा।


'पकड़ ना। बड़ा भाई हूँ तेरा । ले ले।'


'भाई साहब, मुझे पाँच सौ रुपये एडवांस भी चाहिए | ' मैंने झिझकते हुए कहा।


'क्या हुआ? कपड़े लेने हैं?'
भाई साहब से कुछ भी छिपा नहीं था । फिर भी अपने परिवार की बदहाली कहने के लिए शब्द जुटा पाने जितना  भी गरीब  नहीं था मैं।


'ले ले,' उन्होंने पैसे निकाल कर टेबल पर रख दिए, 'कल आऊँगा, केक खाने,' वो हँसते हुए बोले।


'जरूर, भाई साहब। थैंक यू।' मेरी आवाज खुशी में भीगी हुई थी।


फैक्टरी से छुट्टी के बाद मैं मार्केट की तरफ चल दिया। 


'साइज छोटा न हो बस। फिटिंग तो माँ कर ही देंगीं।' मैं अपने से बातें करते करते मार्केट पहुँच गया। दुकान ढूँढ रहा था तभी मेरी नजर छुटकी और बड़की पर पड़ी। मैंने भाग कर उन्हें पकड़ लिया।

'अरे, तुम यहाँ क्या कर रही हो?' 
छुटकी ने उस ही फटे कुर्ते पर माँ का कार्डिगन पहन रखा था |

'कुछ नहीं, भाई। ऐसे ही,' बड़की हकलाई।


'क्या सड़क नापने आई हो?' दोनों चुप रहीं। 


'चलो, मेरी परेशानी खत्म हो गई। सूट कौन सी दुकान से खरीदती हो तुम?'


'पूनम वाले से, पर क्यों?'


'क्यों छोड़, चलो।'


'पहले आप चलो। अपने लिए शर्ट पसंद करो।'


'शर्ट...मेरे लिए? पैसे कहाँ से आए?'


'कुछ हमने इकट्ठे किए थे, कुछ माँ ने दिए हैं ' छुटकी की आवाज़ में खनक थी।


'कितने हैं?'


'दो सौ'


'लाओ, मुझे दो।'


बड़की ने पैसे मुझे पकड़ा दिए।
'चलो, पहले पूनम वाले से तुम दोनों के लिए सूट लेते हैं,'


वो दोनों ठिठक गईं, 'माँ हमें डाँटेंगीं,'


'वो मैं संभाल लूँगा,'

 
बहनों को दो दो सूट के कपड़े दिला कर मैं बल्लियों उछल रहा था। 


'ये क्या? जन्मदिन तेरा है न?'  माँ ने कपड़े देखते ही बोला  |


'माँ, जन्मदिन तो आते ही रहेगें। 


'इतने पैसे कहाँ से आये?' माँ ने पूछा |

'एडवांस लिया है और तीन सौ रूपये भाई साहब ने अपनी तरफ से दिए थे केक के लिए |'

'वो भी इसमें लगा दिए ? एक-एक दिलाकर अपने लिए कुछ ले लेता |' माँ मुझे निहार रही थीं |


'अगले महीने, पक्का |नयी कमीज पहनकर और तेरा बनाया गाजर का हलवा खाकर मेरा जन्मदिन तो मन जाता, जीभ भी खुश हो जाती | लेकिन इनके इन घिसे हुए कपडे मुझे और तुम्हे धिक्कारते रहते |'
माँ की आँखों में आंसू झिलमिला रहे थे |

'बस तुम एक काम करना माँ | कल तक इनके एक-एक सूट सी देना बस | गाजर का हलवा बनाने से कुछ ज्यादा टाइम जरूर लगेगा पर इनका स्वाद उससे बहुत बढ़िया होगा|' माँ ने साड़ी के पल्लू से आँसू सुखाते  हुए सिर हिलाया, 'ये मेरा सबसे अच्छा जन्मदिन होगा |'

'भाई, तुम्हारे जन्मदिन पर कुछ नहीं बनेगा?' चुटकी भरी आवाज़ में बोली |

'बनेगा ना| तू ही बनाना स्कूल से आने के बाद | सूजी का हलवा |' मैंने उसके सिर पर चपत लगाते हुए कहा, ' और हाँ, ठीक से बनाना | माँ के गाजर के हलवे के टक्कर का |'

मेरी आँखों में ख़ुशी के आँसू  बेकाबू हो रहे थे | मैं उठकर बाथरूम की तरफ भाग गया |


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