बुधवार, 7 दिसंबर 2016

वक़्त और मैं...एक नज़्म



वक़्त और मैं...



वक़्त की आंच पर उबलता हूँ, भाप लो
चलता-फिरता अलाव हूँ, हाथ ताप लो |


सपने दिखाता  है, खुद तोड़ भी देता है 
पर रखे पुख्ता कि उम्मीद का जाप हो | 

कभी ठोकरें देता है, तो सहारा कभी,
गिराना-उठाना ही बस क्रियाकलाप हो |

काम-धाम, रिश्ते-नाते, सबसे सरोकार उसे,
पुण्य मुझे मिले न मिले, उसका प्रताप हो |

मेरी कोशिशें उसके मिज़ाज़ की मोहताज हैं,
बंदिशें इतनी रखता है जैसे मेरा बाप हो |

दिन सा उजला कभी, स्याही से सना कभी,
पीछे पड़ा मानो पिछले जनम का पाप हो |

बेचैन बड़ा है,नामाकूल कभी ठहरता नहीं,
किसी वंश को मिला खानाबदोशी का शाप हो |

मैं कुछ भी कहूँ, वो सुनता ही नहीं,

फैसले थोप देता है ऐसे कि खाप हो |

                                            गौरव शर्मा 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें