बुधवार, 17 अगस्त 2016

बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बांधा है ..



                                                     

                         बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बांधा है ..


                                                                   
                                               सच्ची भावनाओं का त्यौहार- रक्षाबंधन 



कल रक्षाबंधन है। भाई -बहन के पावन रिश्ते का पर्व। न रोशनी का, ना रंगों का, न असत्य - सत्य का, बस भावनाओं का पर्व।

एक कोमल सा धागा जब भाई की कलाई पर सज जाता है तो वह कोमल नहीं रहता। बहनें धागे में गूँथकर अपार स्नेह व भावनाएँ बाँधती है। कुछ दिन बाद, भाई जब उस धागे को उतारता है तो तोड़ता नहीं, बड़ा जतन लगा के खोलता है और उसे संभाल कर रखता है।


व्यक्तिगत रूप से मुझे यह त्यौहार बहुत भाता है। शायद इसलिए कि मैं एक भावुक व्यक्ति हूँ । छोटी-छोटी बात पर मेरी आँखें भीग जातीं हैं। यह लिखते समय भी आँसु आँखों के मुहाने पर छटपटा रहे हैं। अभी कुछ देर पहले ही अपने विधार्थियों से रक्षाबंधन पर बात करते-करते मेरा गला रुंध गया था। मेरा मानना है कि निष्ठुर से निष्ठुर व्यक्ति इस दिन अपनी बहनों के प्रति संवेदनशील हो जाता होगा। इसलिए अपने भावनात्मक रविए पर मुझे शर्मिंदगी नहीं होती।


आज सुबह से ही ऐसा हो रहा है। जैसे ही थोड़ा सा खाली होता हूँ, मन बचपन के अहाते में भाग जाता है।



रक्षाबंधन पर स्कूल की छुट्टी तो होती ही थी। मम्मी पता नहीं कब की उठी होतीं थी। झाड़ू- पोंछा हो चुका होता था जब वो हमें उठाने के लिए झिंझोड़ती थी। भगवान के आले के दोनों ओर व सारे दरवाजों पर खड़िया से चकोर पुता होता था। मैं उठते ही गीली खड़िया पर उंगली लगाता था तो मम्मी हल्की-सी चपत लगा कर कहती थी, " मरे, पूजा होगी। झूठे हाथ लगाता है।"


नहाने के बाद सोहन पुजते थे। हमारे यहाँ यह मर्द ही पूजते हैं। कटोरी में गेरू घुला होता था व माचिस की तिली पर रुई लिपटी  होती थी। पापा सफेद चकोर पर "श्री कृष्ण शरणम् मम:" लिखते थे। गुंधे आटे की बत्तियों से कलावे का हार लगाते थे और रोली के छींटे मार कर जवें का भोग लगाते थे। मैं पूजा की थाली पकड़े ध्यान से सब देखता था।
उस समय मम्मी रसोई में कड़ी चावल बना रही होती थीं। लम्बे श्रावण मास के बाद कड़ी की अटक खुलती है रक्षाबंधन वाले दिन। 


फिर मेरी तीन बहनें मुझे राखी बाँधती थथीं, मीठा खिलाती थीं और आरती उतारती थीं। फिर मैं पापा के दिए हुए पैसे उन्हें देता था।
मैं शैतान था पर उस दिन बड़ा ही संवेदनशील और भावुक हो जाया करता था। अपनी बहनों के प्रति सदा से ही बहुत अधिक प्रोटेक्टिव रहा हूँ मैं, शायद हर रिश्ते के प्रति ऐसा ही हूँ। एक मुझसे बड़ी बहन भी है मेरी लेकिन उसे भी छोटा समझ छाँव देने की कोशिश करता रहता हूँ आज भी। या यह कह सकते हैं कि अकड़ दिखाता रहता हूँ। 


इस त्यौहार की सबसे अच्छी बात है घर में लगने वाला जमावड़ा। बुआओं का आना फिर मम्मी का मामाओं के घर जाना। मूल्य बताकर नहीं सिखाए जाते। निभाकर सिखाए जाते हैं। 


आज बहुत से युवा बच्चों से बात हुई। मैंने पूछा कि उन्हें रक्षाबंधन के बारे में सबसे अच्छा क्या लगता है तो अधिकतर बच्चों का उत्तर था 'घर में सबका आना'। सुनकर मेरी आँखें नम हो गईं। विश्वास थोड़ा प्रबल हुआ कि आधुनिकता भावनाओं को निगल नहीं  सकती।


कुछ युवतियों ने कहा कि वे उपहार मिलने को लेकर उत्साहित हैं। तब मैंने उन्हें एक सच्ची कहानी सुनाई। आपको भी सुनाता हूँ।


बहुत साल पहले की बात है। एक भाई की माली हालत ठीक नहीं थी। बहन राखी बाँधने आई तो इक्कीस रुपये ही दे पाया वह। बहन का मुँह बन गया। बोली, " भाई, मिठाई का डिब्बा, राखी, गोला, और आने जाने का मिला कर दो सौ रुपए के करीब खर्च हुए हैं मेरे। उतने तो देता। इससे अच्छा तो मैं डाक से भेज देती तेरी राखी।"
भाई बहुत शर्मिंदा हुआ। उसके बाद न बहन कभी राखी बाँधने आई और न ही भाई ने उसे बुलाया। बहन अमीर ममेरे भाई को राखी बाँधने जाने लगी। भाई त्यौहार वाले दिन रोता रहता।


कहानी सुनकर लड़कियों ने भी उस बहन को धिक्कारा। रिश्तों का आधार कभी भी पैसा नहीं हो सकता।

सोन आज भी पूजे जाते हैं। बस बाज़ार में रेडीमेड मिलने लगे हैं। मिठाई की जगह चाकलेट प्रचलन में है । आज भी लड़कियाँ क्लास के लड़कों को राखी बाँधती हहैं। आज भी महिलाएँ कई दिन पहले ही राखी की तैयारियों में जुट जाती हैं। हम कितने भी आधुनिक हो जाएं, मन में हम जानते हैं कि सच्ची खुशी कहाँ, कब और कैसे मिलती है।


बच्चों से बात करते समय उनकी आँखों में चमक देखकर बहुत सुकुन मिला। यह बदलते परिवेश, बदलते आचरण, बदलती विचारधारा, बदलता खानपान हम पर कितना भी प्रभाव डाल लें, हमारे पर्व हमें एकदम से अपनी जड़ों में वापस ले जाते हैं, एक दिन के लिए ही सही।


तो, आप सब भी पूरे उल्लास 

और भावनाओं से ओतप्रोत होकर इस पर्व को मनाइए और अपने भाई या बहन के लिए अपने स्नेह को नए आयाम पर ले जाइए।


आप सभी को रक्षाबंधन के अनूठे पर्व की शुभकामनाएं।

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

नयी शुरुआत करतें हैं...



नयी शुरुआत करतें हैं...


जिंदगी चल आ..
फिर से बात करते हैं |
हार-जीत का हिसाब नहीं,
नयी शुरुआत करते हैं |


कोई प्रश्न मैं न पूछूं ,
कोई प्रश्न तुम न करना |
साँसों का मकसद क्या हो?
ऐसा कोई सवाल न करना |
धड़कनों के शोर का भी, 
अब कोई ख्याल न करना |
आँखों के आंसुओं को 
निचोड़ आगे बढ़ते हैं |
हार जीत की बात नहीं,
नयी शुरुआत करते हैं |


उदास हैं साँसे, उदास सही,
मन की चिड़चिड़ाहट रुके नहीं,
नया कोई सपना उगे नहीं,
वक़्त चलता रहे, 

लम्हें थमें नहीं |
न मंज़िल की परवाह करें,
न ग़मों से डरते हैं,
हार जीत का हिसाब नहीं,
नयी शुरुआत करते हैं |


चाहत नहीं दस्तक दें,
भावुक खुशियां फिर से |
न फूल खिलें, 

न बयार चले,
न चमकें अँखियाँ फिर से |
टूटी हुयी नाव से ही, 
पार उतरते हैं |

हार जीत की बात नहीं, 
नयी शुरुआत करते हैं |


तुझसे कोई शिकायत नहीं है,
तुमभी बेशक रियायत न करना |
तैयार हूँ और इम्तिहानों के लिए,
तुम भी आसान सवाल न करना |
मुर्दा उत्साह अपग उमंग,
टूटे सपनो को दफ़न करते हैं |
हार जीत की बात नहीं,
नयी शुरुआत करते हैं |



रविवार, 14 अगस्त 2016

लाल-किले का कवि-सम्मलेन


                                         

                                        लाल-किले का कवि-सम्मलेन 

                                       
                                             
                                                   
                             स्वतंत्रता दिवस पर एक उपाख्यान 







वो बड़े अच्छा समय था- यौवन के मस्तमौला दिन | लिखता तो मैं बचपन से ही था पर तब कवि सम्मेलनों में जाने के लिए भी बड़ा उत्साहित रहता था | 

पंद्रह अगस्त की संध्या पर लाल किले में होने वाले कवि सम्मलेन के निमंत्रण पत्र कैसे भी कहीं से प्राप्त करके वहाँ लगभग हर वर्ष जाता था | ऐसे ही एक स्वंतंत्रता दिवस के कवि सम्मलेन का किस्सा आज आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ |

मैं, उस समय शायद अठारह या उन्नीस वर्ष का रहा होंगा | लाल किले  के प्रांगण में कवि- सम्मलेन चल रहा था | बहुत सरे जाने माने कवि आमंत्रित थे | सभी नाम तो याद नहीं हैं परंतु, श्री ओमप्रकाश आदित्य जी, कुंवर बैचेन साहब और आदरणीय हरिओम पंवार जी मुझे अच्छे से याद हैं |

हरिओम पंवार जी को मैं पहली बार सुन रहा था | उन्होंने अपनी ओजस्वी कविता की कुछ ही पंक्तियाँ  सुनाई की मैं उनका प्रशंसक  हो गया |




कविता  वीर रस की ही थी जिसके लिए हरिओम जी जाने जाते हैं | बेनज़ीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री थीं उस समय | कविता के बोल तो याद नहीं हैं लेकिन हरिओम जी की कविता के बीच में ही हज़ारों श्रोताओं ने " चलो पाकिस्तान, चलो पाकिस्तान " के नारे लगाने शुरू कर दिए | धीरे धीरे लगभग सभी खड़े होकर नारे लगाने लगे | 

उनमें से मैं भी एक था | ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो युद्ध का उद्घोष हो रहा हो | मुस्लिम श्रोता चिंतित, चुपचाप, सिकुड़े हुए अपनी कुर्सियों पर बैठे थे | माहौल बिगड़ता देख श्री हरिओम पंवार जी को बीच में रोक दिया गया और दिल्ली  के तत्कालन मुख्यमंत्री श्री मदनलाल खुराना जी को मंच पर  आकर श्रोताओं से धीरज रखने का निवेदन करना पड़ा | लगभग आधे घंटे के विघ्न के बाद कवि-सम्मलेन पुनः  प्रारम्भ हुआ |

घटना बहुत छोटी सी थी | और, यदि स्तिथि बिगड़ जाती तो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होता किन्तु, एक कविता कैसे कुछ ही क्षणों में हज़ारों हृदयों को आंदोलित कर सकती है व देश भक्ति की सोई हुयी भावना को जगा सकती है, यह मैंने अपने जीवन मैं सिर्फ तभी देखा था |

श्री हरिओम पंवार जी आज नही उस ही प्रकार ओजस्वी और देश प्रेम से ओट-प्रोत कवितायेँ कहते हैं और मैं उनका तभी से प्रशंसक हूँ |

#स्वतंत्रता दिवस    #हरिओम पंवार   #लाल-किला     #कवि-सम्मलेन 

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

और दस वर्ष बाद



चलो,  आज फिर से  .......


 


चलो आज ज़िन्दगी को ठेंगा दिखाकर,
कुछ देर भरपूर जी लेते हैं |
कठपुतली बनकर नाचना ही तो है,
आज अपनी रस्सी काट छुट्टी कर लेते हैं,
चलो एक दिन के लिए फिर से,
प्रेमी-प्रेमिका बन लेते हैं |


नुक्कड़ की रेहड़ी से चुस्की खरीदेंगे,
हर बार बच्चे 'हाईजीनिक  नहीं है' कहकर
टाल देते हैं न,
आज चूस लेते हैं,
'कोई क्या कहेगा' की चिंता,
रेज़गारी में दे देते हैं |


फिर टहलते हैं, उँगलियों में उँगलियाँ फँसाये,
देने दो उम्र ताने देती है तो,
कानों में बेशर्मी की रुई डाल लेते हैं |

पार्क की बेंच पर सट कर बैठेंगे,
मुद्दतें हुईं चलो, एक दूजे की
आँखें बांच लेते हैं,
जितने अधलिखे प्रेम पत्र
संकोच की टोकरी में भरे पड़े हैं,
एक-एक कर सारे पढ़  लेते हैं |

फिर मेरे कंधे पर सर रखकर,

तुम  कुछ गुनगुनाना
अपनी बारी में मैं तुम्हारी
गोद में सर रख लूंगा,
आज फिल्मों के पात्रों सा
बन के देख लेते हैं |


ज़रा देना तो ऊपर वाले को रिश्वत,
कहना मौसम का रिमोट हमें दे दे |
आज साथ साथ बारिश में,
झूम लेते हैं |
और जब वो रुक जाएगी न,
तो खरीदेंगे आम,
घुटनो तक मोड़कर कपडे,
भरे पानी में छप-छप करते चलेंगे,
आओ एक दूसरे  के हाथों से
आम चूस लेते हैं |

रविवार, 7 अगस्त 2016

मनीआर्डर




                                                                               मनीआर्डर



नोट :- कहानी १९८० के आस-पास घटित होती है |



उस दिन फिर चार तारीख थी। पिछले तीन महीने से इस ही तारीख को बेनामी मनीआर्डर आ रहा था। बेनामी इसलिए क्योंकि जो नाम लिखा था वो मेरे परिचितों में किसी का नहीं था | हर बार एक ही संदेश लिखा होता था "लौटाना मत। तुम्हारे दिए एक कर्ज की किश्त मात्र है यह"।

 संदेश पढ़कर भी मैं रुपये रखना नहीं चाहता था परन्तु घर की जरूरतों के कारण विवश हो जाता था। मेरा वेतन एक हजार रुपये मासिक था । इससे पाँच बच्चों के साथ गुजारा मुश्किल से होता था। हर महीने कुछ रुपये उधार लेने पढ़ते थे। पत्नी के ताने कर्जदारों के तकादों से भी ज्यादा भयभीत करते थे। पिछले तीन महीनों से हजार रुपए अतिरिक्त आने से घर की परिस्थिति सुधर रही थी। काफी कर्ज़ चुक गया था और पिछले महीने मालती को साड़ी और बच्चों को एक -एक जोड़ी कपड़े दिला दिए थे।

मैं इतना ही जानता था कि यह मनीआर्डर भोपाल से आ रहा था। कौन भेज रहा है, पता नहीं चल पा रहा था। भोपाल में मेरा कोई परिचित नहीं था और न ही मैं  वहाँ कभी गया था।

इस बार मैं स्वार्थी और लालची बन मनीआर्डर की बाट जोह रहा था। "कुछ महीने और आता रहे बस। सब कुछ ठीक हो जाएगा।" मैं सोच रहा था।

लंच से कुछ पहले मनीआर्डर आ गया। डाकिया साथ में एक और पत्र लाया था- निमंत्रण पत्र | भोपाल में होने वाले कवि सम्मेलन का। शायद समय आ गया था कि मैं उस अज्ञात शुभचिंतक का पता लगाऊँ।

मैं पहले भी भोपाल जाना चाहता था लेकिन माल्ती को बताने के लिए कोई कारण नहीं था मेरे पास। इस निमंत्रण ने यह दुविधा दूर कर दी थी। 
कभी-कभी ही मिलता था पारिश्रमिक वाले कवि सम्मेलन का न्योता। मुझसे ज्यादा खुशी माल्ती को होती थी ऐसे अवसरों पर। कवियों से विवाह होना किसी भी स्त्री के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात होती है और उनके साथ निभाना उनका साहस होता है।
कवि सम्मेलन रात को था लेकिन मैं सुबह ही भोपाल पहुँच गया। रेलवे स्टेशन से सीधा प्रधान डाकघर गया। मनीआर्डर की पर्ची दिखा कर जानकारी लेनी चाहिए लेकिन सरकारी कर्मचारी मदद करना अपनी तौहीन समझते हैं।

बड़े मान-मनुहार और बीस रुपये चुकाए तब जाकर भेजने वाले का नाम व पता मिला।

"मृगनयनी नाम की महिला चार महीनों से हमारी संकटमोचन बनी हुई थी। उनसे मिलना हर लिहाज से अनिवार्य था।" मैं दृढ़ निश्चय कर चुका था उससे मिलने का,  फिर चाहे मुझे कवि सम्मेलन छोड़ना क्यों न पड़े। 


टेम्पो पकड़ कर मैं उस पते पर पहुँचा परन्तु दरवाजे पर लटके बड़े से ताले ने ठेंगा दिखा दिया मुझे । मैंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की। फिर सोचा पड़ोसियों से पूछता हूँ। 
बाईं ओर सटे मकान का दरवाजा खटखटा कर पूछा तो जानकारी मिली कि वह मकान काफी समय से बंद है और वहाँ मृगनयनी नाम की कोई महिला नहीं रहती थी। मैंने पूछा, "क्या यह मकान पिछले चार माह से बंद है?"
उन्होंने कहा, " पूरा साल होने को है।"
मैंने फिर पूछा, "उनका कोई और पता भी है।" उन्होंने उत्तर दिया, "घर का तो नहीं, पर हाँ, सुकृति प्रकाशन उन्हीं का है। बड़े बाजार में दफ्तर है।"

मैं बड़े बाजार को रवाना हो लिया। आश्चर्य हो रहा था कि इस युग में भी गुप्त परोपकार करने वाले हैं। गुत्थी सुलझ नहीं रही थी और मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। लाभ मिलना न मिलना अलग विषय था परन्तु मेरे प्रति इतनी अधिक दया और स्नेह  रखने वाली स्त्री का परिचय न  मिलना कौतूहल मचा रहा था। मैं कवि हूँ। निश्चित ही कपटी नहीं हो सकता। कवि-हृदय में मर्म और संवेदना तरल अवस्था में होती है। वह स्वयं उन्हें बहने से रोक नहीं सकता।


बड़े बाजार में भी निराशा मेरी प्रतीक्षा कर रही थी । शनिवार होने के कारण सुकृति प्रकाशन का दफ्तर बंद था। सोमवार तक भोपाल में रूकना मेरे लिए संभव नहीं था। 
अब तक मिली निराशा की समीक्षा करते हुए मुझे कवि सम्मेलन का पारिश्रमिक छोड़ना मूर्खता लगी।  आयोजकों द्वारा कवियों के लिए आराम गृह की व्यवस्था की गई थी। मैंने वहीं जाना उचित समझा।


भोपाल से असफल लौटते हुए मेरा मन मुझे कचोट रहा था परंतु मैं विवश था। 

माल्ती पाँच सौ रुपए का पारिश्रमिक और घर में कुछ महीनों से होने वाली बरकत को अपने व्रतों का  प्रसाद मान कर फूल रही थी। बिना खुद जाने मैं उस अनजान फरिश्ते के बारे में उसे बताना नहीं चाहता था।

दो महीने और बीत गए। रुपये बेनागा आए। मैंने पाँच सात सौ रुपए चोरी-चोरी जोड़े, कि कवि सम्मेलन के बहाने भोपाल जाऊँगा और लौटकर पत्नी को पारिश्रमिक के तौर पर वो रुपये दे दूँगा। 

मैं माल्ती को अपना कार्यक्रम बताता, उससे पहले ही हमारे एक नोनीहाल को किताबें चाहिए थी, दूजे को स्कूल पिकनिक जाने की जिद थी और तीजे के जूते टूट गए थे। जोड़े हुए रुपए बराबर हो गए । 

दो महीने बाद दीवाली आ गई। मेरे अनजाने आर्थिक मददगार की बदौलत काफी सालों बाद हमारी दीवाली बहुत अच्छी रही। माल्ती और बच्चों ने खूब अरमान निकाले।

सब ठीक था। सभी खुश थे। लेकिन मेरा चित्त अशांत था। मैं कम बोलने लगा था। लिख नहीं पाता था। यह स्पष्ट था कि हर माह बिना भूले इतने रुपये भेजने वाला यह भगवान-स्वरूप व्यक्ति मुझ से  ही संबंधित था। उसका वह संदेश और फिर मनीआर्डर का दफ्तर में ही आना दोनों इसी ओर इशारा करते थे।
दिन-ब-दिन मेरा बोझ बढ़ता जा रहा था। बहुत बार मैं कल्पना करता था कि यदि ये सारे रुपये मुझे एक साथ लौटाने पड़े तो? मेरा कलेजा काँप उठता था।
दस महीने हो गए थे। हजार रुपये प्रति माह आ रहे थे। कौन भेज रहा था और क्यों  भेज रहा था, यह अभी भी नहीं पता था। 

एक दिन मैंने दफ्तर से माल्ती को संदेश भेज दिया कि मैं दो दिनों के लिए बाहर जा रहा हूँ। साथ में कुछ रुपये भी भिजवा दिए। विवाह के कुछ वर्षों बाद पत्नी के लिए पैसा, पति से अधिक महत्वपूर्ण होता है शायद। दो-तीन सौ रुपए लौट कर भी थमा दूँगा तो शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी।' मैंने सोच लिया |

मैं रात की ट्रेन से भोपाल के लिए रवाना हो गया। सीधा सुकृति प्रकाशन  के दफ्तर पहुँचना चाहता था मैं इस बार। 

बुधवार था अगले दिन। छुट्टी नहीं होगी। कोई न कोई तो जरूर मिलेगा।
पूरे रास्ते मैं तरह तरह की कल्पनाएँ करता रहा, अनुमान लगाता रहा और बेचैन रहा।

तड़के ही मैं भोपाल पहुँच गया। कुछ समय स्टेशन पर गुजारा। जब बाहर सड़कों पर चहल-पहल शुरु हो गई तो मैंने बड़े बाजार के लिए टेम्पो पकड़ा। 
सुकृति वालों का दफ्तर खुला नहीं था। मेरे पेट में हौला हो रहा था। मन तो नहीं था, पर मैंने पोहों का नाश्ता कर लिया। 
करीब पौने दस बजे दफ्तर खुला। मैंने कुछ और देर इंतज़ार किया।
सवा दस बजे मैं घबराते हुए अंदर दाखिल हुआ। 

दफ्तर छोटा ही था । बाहर वाले हालॅ में वही व्यक्ति मेज पर बैठा था जिसने दफ्तर खोला था।
"मैं, मृगनयनी जी से मिलना चाहता हूँ," मैंने उस व्यक्ति से कहा।
मेरा प्रयोजन सुनते ही वह खड़ा हो गया। उसके चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगीं। उसने दुविधा का थूक निगलते हुए मुझे बैठने के लिए कहा। मैं समझ गया था कि वह मृगनयनी और मनीआर्डर के विषय में कुछ जानता जरुर है।

'मृगनयनी नाम की तो यहाँ कोई नहीं हैं,' वह बोला। मैं उसे घूरता रहा। जानता था ऐसा करने से वह असहज हो जाएगा। 'फिर भी, मैं मैडम से पूछ कर बताता हूँ।' यह कहकर वह जल्दी से उठा और अन्दर वाले बंद कमरे की तरफ बढ़ा।

मैं समझ गया था कि अंदर बैठी महिला या तो स्वयं मृगनयनी है या इस काल्पनिक चरित्र की रचयिता।

वह एक मिनट से भी कम समय में बाहर आया और मुझे भीतर जाने को कहा।

कमरे का दरवाजा खोलते ही मैं ठिठक गया। बड़ी सी मेज के उस ओर खड़ी नैनिका मुस्कुरा रही थी। मेरी नसों में खून जम गया था। मैं न आगे बढ़ पा रहा था और न लौटना चाहता था। 


'आओ न, शशांक। यहाँ तक पहुँच गए हो तो आगे भी आ ही जाओ।' उसने कहा।
मैं दो कदम आगे बढ़ कर खड़ा हो गया। कुछ देर उसे निहारा फिर कहा, 'दस महीनों से रुपये तुम भेज रही हो?'
वह चुप रही।

'क्यों? क्या जरूरत थी इस दया की? और वह भी बेनाम। भला क्यों? भगवान बनने का नया शौक चढ़ गया है क्या?'

'बाप रे! इतने सारे प्रश्न। इतना गुस्सा। बैठो तो सही।' वो  बिल्कुल भी बदली नहीं थी।

मैं खड़ा रहा और उसे देखता रहा। मन ही मन सोच रहा था कि कह तो दिया इतना कुछ आक्रोश में। कहीं उसने भी कह दिया कि वापिस कर दो अगर तुम्हें ठीक नहीं लगा तो। मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि  वो गुप्त मसीहा  नैनिका होगी। याद ही कहाँ थी वो मुझे।

'बैठो न, शशांक। झगड़ा करने आए हो क्या बस?'

मैं अपनी गलती सुधारने के इरादे से धीरे से बैठ गया | 
बाहर बैठा व्यक्ति पानी का गिलास  व चाय मेज़ पर रख गया |

'हाँ, क्या कह रहे थे तुम, एहसान, भगवान् बनने की कोशिश ?' उसने हँसते हुए कहा |

'और क्या है ये सब, नैनिका?'

'मैंने तो हमेशा लिख कर भेजा था कि यह तुम्हारे दिए एक क़र्ज़ कि किश्त मात्र है|'

'मैंने तुम्हें कौनसा क़र्ज़ दे दिया? ज़िन्दगी ने बनाया ही कब मुझे इस लायक, कि मैं किसी को कुछ दे सकूँ?'

'दिया था | और बिना बताये, बिना जताए दिया था | मैंने भी उस ही तरह उस क़र्ज़ को उतरने कि कोशिश कि, बस |'
'मैं झुंझलाने वाला हूँ बस | कृपया करके आप सीधे शब्दों में समझाएंगी, नैनिका जी ?'

'हाँ. बताती हूँ | पर तुम काफी बदल गए हो| पहले काफी शांत रहते थे तुम |'

'ये सब छोड़ो | मुद्दे कि बात करो | मुझ पर अचानक इतनी दया का कारण क्या है? जब करनी चाहिए थी तब तो कि नहीं गयी ?'

 'तुम न तब दया के मोहताज थे, न अब हो | और यकीन मानो, मैं तो इस स्तिथि में बिलकुल नहीं हूँ कि तुम पर कोई दया करूँ | कॉलेज में कितनी कवितायेँ लिख कर मेरे डेस्क में रखीं थीं तुमने, याद है ?' उसने मुझे देखा | वह शांत, संयमित, मुस्कुरा रही थी |

मुझे वाकई याद नहीं था | नैनिका को तो में जवानी कि नादानी समझ कब का भुला चुका था | भुला क्या मिटा चुका था |

'जानती हूँ, तुम्हें याद नहीं होगा | तभी तो मैंने कहा था कि क़र्ज़ देकर भूल तुम गए थे | त्रेसठ कवितायेँ लिखीं थीं तुमने डेढ़ साल में |'

'हाँ तो?' वो क़र्ज़ तुमने स्वीकार कहाँ किया था | अगले दिन टुकड़े टुकड़े करके वापस फेंक देती थी मेरे डेस्क में |'

'अपनी डायरी में नोट करने के बाद फेंकती थी | तुम फिर भी नहीं माने | यह वही क़र्ज़ है |'

'यह क़र्ज़ कैसे हुआ? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ |'

'किसी को महत्वपूर्ण होने का एहसास कराना, किसी को  भगवान सा सम्मान देना, किसी को दिन रात सोचते रहना, क़र्ज़ ही तो हैं | कितनी भावनाओं से लिखी होंगी वो कवितायेँ तुमने ? त्रेसठ कविताओं में त्रेसठ हज़ार भावनाएँ घुटी होंगीं | सेकंड ईयर में प्यार हुआ था न तुम्हें? सात सौ दिनों में सात हज़ार बार तुम्हारी नज़रों में खुद के लिए प्रशंसा देखी थी | ख़ुशी तो मिलती ही है न इन सबसे? वही क़र्ज़ है ये |' वह बोलती गयी |

'इतना मोल समझतीं यदि  उस सब का, तो स्वीकारा क्यों नहीं?' मैंने पूछ लिया | बस यूँ ही उत्सुकता हो रही थी |

'तीन बहनें-बहनें हीं थीं हम | भाई नहीं था | माँ-बाऊ जी बोझ समझ कर रोज़ अपनी परेशानी सबसे कहते थे | रोज़ कॉलेज के लिए निकलते समय माँ हिदायत देतीं थीं कि कोई ऐसा काम न करूँ जिसका  छोटी बहनों पर  बुरा असर पड़े |'

'अब अचानक क्या हुआ ?'

'अचानक कुछ नहीं हुआ, शशांक | बस मौका दे दिया ज़िन्दगी ने |

'सुकृति प्रकाशन मेरे पति का था | चार वर्ष पहले उनका देहांत हो गया | हमारे दो बच्चे हैं | उनके व अपने जीवन-यापन के लिए इसे चलाना मेरी विवशता थी | उनके जाने के बाद काम काफी कम हो गया | लोगों को मुझ पर विश्वास नहीं था | सारा काम बस मैं और विपिन जी ही सँभालते हैं | बाकि लोगों का वेतन मैं वहन नहीं कर सकती थी | अच्छा साहित्य प्रकाशन के लिए आ ही नहीं रहा था | तब मुझे तुम्हारी उन कविताओं कि याद आई | पर बिना तुम्हारी अनुमति के कैसे छापती | तुम्हें ढूंढा | तुम्हारी परिस्तिथि पता चली | मैं एक साथ तुम्हें कुछ दे नहीं सकती थी, इसलिए मासिक किश्त के रूप में तुम्हें रुपये भेजने शुरू किये | आश्वस्त थी, कि तुम मुझे पहचान लोगे किन्तु ऐसा नहीं हुआ |'

'नैनिका लिखती तो पहचानता न | मृगनयनी नाम प्रयोग क्यों किया तुमने ?'

'मैंने कहाँ प्रयोग किया | तुमने किया था कई कविताओं में मेरे लिए यह नाम | तुम सब भूल गए हो | अच्छा ही है न | हम दोनों ने ही इसे ज्यादा जटिल नहीं किया |'

'ऐसे ही पूछ रहा हूँ, क्या तुम मुझसे प्यार करतीं थीं ?'

वो हल्का सा हँसी | 'नहीं, कभी नहीं | हाँ, बस सम्मान करती थी तुम्हारी भावनाओं का | मैं स्वार्थी नहीं हो सकती थी | माँ के निर्देशों का पालन करना ही था मुझे | और फिर प्यार का मतलब किसी को पा लेना ही होता है क्या ? कुछ देर के लिए महत्वपूर्ण समझा या पूरी ज़िन्दगी के लिए समझा, ये कहाँ महत्वपूर्ण है? माप और परिमाप तो लोलुपता हैं, शशांक | इनके चक्कर में पड़ गए तो भूख कभी मिटती ही नहीं |' 


मैं उसे देखता रहा और सुनता रहा | सोच रहा था कि ठीक ही तो हुआ | उसकी परिपक्वता बता रही थी कि मैं उसके योग्य ही नहीं था |

'खैर छोड़ो ये सब, बताओ, हमें इज़ाज़त है न, तुम्हारी वो कवितायेँ छापने की?'


मैंने उसकी आँखों में देखा | बहुत चमक थी उन आँखों में | मैं ज्यादा देर देख नहीं पाया |


'मेरी कहाँ हैं वो कवितायेँ | मेरे पास तो उनकी प्रति भी नहीं है | कोई पंक्तियाँ भी याद नहीं हैं मुझे | तुम्हें दे दीं थीं | तुम्हारा ही अधिकार है उन पर | मैं तो बस शर्मिंदा हूँ कि तुम्हारे रूपये नहीं लौटा पाउँगा |' मेरी आँखों में आँसू छलक आये थे |


'बीस हज़ार ठीक हैं न ?' नैनिका बोली |


'नहीं, अब मत भेजना  कुछ भी | बहुत भेज चुकी हो तुम |'


'बीस तो तुम्हें लेने हीं होंगे | कॉन्ट्रैक्ट साइन  कर लेते हैं |' वह उठ कर दरवाज़े तक गयी और विपिन को कॉन्ट्रैक्ट अंदर देने के लिए कहा |


मैं चुपचाप हस्ताक्षर करता रहा लेकिन मेरे भीतर तूफ़ान मचा हुआ था |


कॉन्ट्रैक्ट साइन करने के बाद मैंने कहा, 'तुम्हारा यह एहसान कभी चुका नहीं पाउँगा मैं | रूपये मत भेजना अब , नहीं तो मैं अपनी ही नज़रों में गिर जाऊँगा |'


'ऐसा मत बोलिये, कविवर | आपका अधिकार है वो | हम आपकी कला कि कीमत देने लायक हैं ही नहीं | सच पूछो तो कोई प्रकाशक लेखक कि कला खरीद नहीं सकता | दिल और दिमाग पर कोई बोझ मत लो | बीस किश्तें भेजने के बाद मैं कुछ नहीं भेजने वाली | बिज़नस वोमेन हूँ |' वो फिर हँस पड़ी |


'मैं चलता हूँ |' कहकर, मैं खड़ा हो गया |


'ठीक है | और हाँ, काव्य संग्रह का शीर्षक " मृगनयनी " कैसा रहेगा ?' यही सोचा है मैंने | तुम चाहो, तो बदल सकते हो | अभी समय है |'


'मैं कौन होता हूँ, नैनिका | तुम जैसा चाहो , करो |'


वापसी बड़ी कष्टदायक थी | मेरे कदम घिसट रहे थे | शरीर बहुत भारी लग रहा था | मैं भोपाल कुछ हज़ार रूपये के बोझ के साथ आया था, परंतु कई क्विंटल भावनाओं के बोझ के साथ लौट रहा था | प्यार न उसे मुझसे था अब, न मुझे उससे था, पर फिर भी उसने क्या कर दिया मेरे लिए| मैं कभी उसका बदला चुका भी पाउँगा? इतना बड़ा कवि नहीं था मैं, कि मेरी किताब बीस हज़ार  रूपये में खरीदे कोई | मैं कवि समझता था खुद | कवि, जो भावनाओं कि साँसों पर   जीते हैं | मैं सोचता था कि प्रेम कि व्यख्या मैं ही कर पाता हूँ  अपनी कविताओं में | पर नैनिका ने चुपचाप प्रेम कि सटीक व्याख्या कर दी | सच, खोने- पाने से कहीं ऊपर होता है प्रेम | 



शनिवार, 6 अगस्त 2016

जिंदगी, तू मेरी कविता सी बन जा,



जिंदगी, तू मेरी कविता सी बन जा





जिंदगी, तू मेरी कविता सी बन जा,
जब-तब कागज़ पर उतर जाया कर,
बिना ना-नुकर के 
बिना नखरे, बिना मनुहार के,
अच्छी या बुरी, बस हो जाया कर,
जिंदगी, तू मेरी कविता सी बन जा |


मेरे चेहरे को कभी हाथों में भरकर,
अपने कांधे पर मेरा सर रखकर,
हौले-हौले से थपथपा दिया कर,
कभी लड़ ले, कभी झगड़ लिया कर,
थोड़ी सी देर को रूठ लिया कर,
ज़िन्दगी, तू महसूस होती रहा कर 
जब सोंचूं, कागज़ पर उतर जाया कर,
ज़िन्दगी, तू मेरी कविता सी बन जा |



कभी सौंधी सी, कभी औंधी सी,
कभी कुरकुरी, कभी नरम-नरम,
कभी गुनगुनी, कभी गरम-गरम,
बस मैं जी कर भी मुर्दा सा ना रहूँ,
बिन बात साँसों का एहसान ना लूँ,
तू रोज़ मिलती रहा कर,
दुःख दे या सुखी कर दे, 
बस होती रहा कर,
ज़िन्दगी, तू मेरी कविता सी बन जा |

ना तुक, ना तरन्नुम के चोंचले,
बस जज़्बातों की स्याही 
और लफ़्ज़ों के होंसले,
तू  गायब मत हो जाया कर,
मैं ज़िंदा तो रहता हूँ, 
तू ज़िन्दगी का एहसास करा जाया कर,
तू बस होती रहा कर,
ज़िन्दगी, तू मेरी कविता बन जा |

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

इस दिए को क्यों सजाते हो ?






इस दिए को क्यों सजाते हो ?






इस दिए को क्यों सजाते हो ?
तेल ही तो भरना है,
बाती सजेगी, जियेगी,
लौ थिरकेगी,
उजाला पसरेगा,

तेल चुकेगा,
दिए तले तो अँधेरा ही रहेगा,
क्या ये इसका उपकार होगा ?


जब बाती जी लेगी,
तेल सारा पी लेगी,
एक पूँछ दिए से चिपकी
छोड़ देगी...
और साथ में कालिख होगी,
फिर इसमें कौन दोबारा तेल भरेगा?
इसे तो फोड़ा ही जाएगा...
तुम यूँ ही पसीना बहाते हो,
इस दिए को क्यों सजाते हो ?

(c) गौरव शर्मा

बड़ी मूड़ी सी है ज़िन्दगी...





बड़ी मूड़ी सी है ज़िन्दगी...


मिला हूँ ज़िन्दगी से,
बड़ी मूड़ी सी है...
खुश होती है और
अचानक रूठ जाती है...
एक पल ठहाका,
दूजे पल मुँह बना लेती है...
कभी बहुत अपनी सी,
कभी दुश्मन बन जाती है....
जब सोचता हूँ
समझने लगा हूँ इसे,
तभी कुछ नया कर जाती है...
फिर से पहेली बन जाती है...

ज़मीं आसमां






ज़मीं आसमां


ज़मीं आसमां से कुछ यूं बोली-
तू जब-तब आँसुओं से मेरा 
दामन भिगोता है
पर क्या कभी मेरे आँसू भी
देखता पोंछता है?

कैसा मीत है तू?



आँसमां मुस्कुराया और बोला -
पगली, मैंने ही सूरज से
यह कह रखा है 
तेरे आँसुओं को गर्म करे
और उड़ा दे
ताकि वो मुझ तक पहुँच सकें
मैं उन्हें सहेजता हूँ
बादल बनाता हूँ

और फिर तुझे नहला देता हूँ
वो मेरे आँसू नहीं हैं,
तेरे ही हैं
मैं तेरे आँसुओं को
खुशियों में बदल कर
तुझे देता हूँ
ऐसा मीत हूँ मैं।

पापी मन







पापी मन

हर सुबह सूरज से
कई सवाल किया करता है...
आती जाती हवाओं में,
जवाब ढूंढा करता है...

भटकती खुशबू को 
पकड़ने के लिए,मन
कैसे कैसे पाप किया करता है |



नित नित धूमिल होते
सपनो के लिए...
हर पल बोझिल होती
साँसों के लिए...
पापी मन पर ही
बोझ होता है तर्पण का..
जीवन तो पहले ही
हार जाया करता है |

चलती रहती है वक़्त से
खुशियां की छीना तानी...
टूटा है बिखरता है
पर फिर संभल जाया करता है...
आदमी हारता तब है जब
वो खुद से हार जाया करता है...

रिश्ते


                                                             
                                                                  रिश्ते 





हमरी भी हैं चारठो सीट- हमहू बनेगें परधानमंत्री






                 हमरी भी हैं चारठो सीट- हमहू  बनेगें परधानमंत्री



संविधान लिखने वाले तो संविधान लिख गए और किसी को भी राजनीतिक दल बनाने का अधिकार देकर चले गए। परिणामस्वरूप आए दिन कहीं न कहीं कोई  न कोई एक नया दल बनाकर देश की राजधानी को अपना घर बनाने का सपना संजो लेता है।
ऐसा ही चलता रहा तो सोचिए कुछ वर्षों बाद ईवीम कितनी बड़ी  होगी। चार लोग कंधों पर उठाकर लाँएगें ले जाँएगें। बटन दबाने के लिए उम्मीदवार को वैसे ही ढूंढना  पड़ेगा जैसे कोई परीक्षा में पास होने की कम उम्मीद रखने वाला विद्यार्थी परीक्षा परिणाम को खंगालता है।

चुनाव चिन्ह कुत्ता, बिल्ली,चमगादड़, नाक, कान, लोटा, सोटा और न जाने  क्या क्या होगें। भई कहाँ से आँएगें इत्ते सारे चिन्ह? मजबूरी न हो जाएगी। कुछ भी मिल जाए बस वाइए चिपका लेंवेंगें। कुत्ता चिन्ह होने से हम थोड़ी ही न कुत्ते हो जाएगें।फिर कुत्ता भी  तो वफादारी का पर्याय है। देश के प्रति हमारी वफादारी का प्रतीक होगा यह चिन्ह। याहिए धर लो।

राज्य में थोड़ा सा दबदबा बना नहीं फिर सीधा केंद्र को साधेगें। भईया राज्य की बागडोर पत्नी, बेटे, बेटी को सौंप हम देश की राजनीति में टांग अड़ाऐगें।
लोकसभा में चार सांसद आए नहीं हमारे कि चिपक लेंगे गठबंधन की सरकार में। अड़ंगा डालने का सर्टिफ़िकेट ऐसे ही तो मिलेगा। प्रधानमंत्री बनने का सपना पालते रहेंगे सही मौका आते ही लपक लेंगे।
अरे बहुत से ग्वाले,मास्टर, और बहनजियाँ ऐसा सपना पाले बैठे हैं। कई तो कब्र में पैर लटकाए भी एक दफा उस कुर्सी पर टिकने की हसरत रखते हैं।हमनने ही कूण से कुकर्म कर राखे हैं। चूँ न देखें सुपना?

केंद्र में कोई बहुमत पा भी जावे तो क्या हुआ? राज्य में तो हमरी भैंसिया  ही चरेगी। देखे नहीं कश्मीर में क्या हुआ।
अब भईया संविधान के इस अधिनियम में कोई संशोधन तो हम होने देगें नही नहीं।

प्रधानमंत्री बनने का इससे सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ उपाय यही है भाई रे। हम सकूल में पढ़ने वाले छात्र थोड़ी ही हैं कि परिच्छा में तैंतीस प्रतिशत अंक न आए तो फेल हो जाएंगे। हमरी तो पाँच सौ तैतालीस में से चार ठो सीट भी आ जाएं तो हमरा सपना टूटेगा नहीं। और प्रधानमंत्री न भी  बन पाए तो कुछ तो झटक ही  लेंगे। गृहमंत्री, वित्त मंत्री या फिर कोई राज्य  मंत्री।

ख्वाबों का जहाज़








ख्वाबों का जहाज़ 



मोड़ो तो सही 

कागज़ हौंसलों के 

बनाओ तो सही

जहाज़ ख़्वाबों के |


जूनून की हथेली पर 

जोश से रगड़ना 

तपिश सी लगेगी

चपटा करते रहना |


ज़ज़्बे की उँगलियों में,

नज़ाकत से थामना

'जा छू ले आसमान'

कहकर फूंक मारना |


उम्मीदों की हवा को

हिम्मत बहुत भाती है 

बाजुओं पर ऐतबार हो

मंज़िलें सिमट आती हैं

झुकाओ तो सही

बुलंदियां भी कई बार

बौनी हो जाती हैं |

गौरव शर्मा