रविवार, 17 जुलाई 2016

अपने नाम एक खत


विनम्र निवेदन,


कृपया इसे मेरे अथवा किसी और व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से जोड़कर न पढ़ें | इसमें आये सभी प्रसंग एक सामान्य व्यक्ति के जीवन को दृष्टि में रखते हुए लिखे गए हैं | स्वयं को इससे जोड़ने का प्रयत्न  करें | आप इससे जुड़ पाए या यह खत आपको खुद से जोड़ पाया तभी मैं अपने प्रयास को सार्थक समझूंगा |





                                                                   अपने नाम एक खत






प्रिय प्रतिबिंब ( बड़ा सोचने के बाद तुम्हारे लिए यह नाम चुना है ),

बहुत दिनों से सोच रहा था तुम्हें एक पत्र लिखूँ सो आज लिख रहा हूँ क्योंकि कल तुम कुछ ज्यादा ही मायूस थे। खुदकुशी की भी सोच बैठे थे एक बार तो। इसलिए आज ये प्रवचन जरूरी है तुम्हारे लिए। इसे बंद कमरे में मत पढ़ना बल्कि किसी बगीचे में हरे-भरे पौधों के लहराते पर्दों और ठंडी हवा की खुशनुमा बयार  के बीच बैठ कर पढ़ना। आसमान की खुली छत से परिंदों को ताका-झांकी करने देना | 
शायद जो मैंने लिखा है उसे ज्यादा महसूस कर पाओ।

चलो, अपने बचपन में चलते हैं। याद है न, दादाजी ने बताया था कि तुम्हारे परदादा ने कैसे मन्नत मांगी थी तुम्हारे होने के लिए क्योंकि उन्हें स्वर्ग-नसेनी चढ़ना था। तो यार, हम तो खास हुए न, थोड़े से ही सही।

और, वो जब लंबी गैलरी में कतार में बने हुए छोटे-छोटे घरों में से एक में हम भी रहे थे कुछ दिन, वहीं जहाँ तुम घुटने चलना सीखे थे। बराबर वाले कमरे में एक बुजुर्ग कृष्ण भगवान की पूजा करते थे। तुम घुटनों पर पहुँच गए थे वहाँ और उनके सामने बैठकर भोग खाने लगे थे। जब उन्होंने आँखें खोलीं तो भ्रम में आ गए थे कि उन्हें भगवान ने दर्शन दिए हैं। माँ ने कितनी बार ये कहानी सुनाई है। तो, हुए न हम खास, थोड़े से ही।

हमारे यहाँ सात साल में मुण्डन होता है न और दादाजी तुम्हारे बाल कटने देते नहीं थे। तुम गोल -मटोल भी थे | इसलिए रामलीला वाले तुम्हें छोटे रामचंद्र जी बना देते थे। और, वो रायॅल टेलर, तुम्हें इतना प्यार करता था कि उसके पास कोई भी पेंट बनने के लिए आती थी तो उसमें से कपड़ा बचा कर तुम्हारा निकर  बना के जबरदस्ती घर प दे जाता था। यार, बचपन से ही लोग फैन थे हमारे। तो, खास थे न हम।

जानते हो, जीवन बचपन से क्यों शुरू होता है? जिससे बचपन में जो सब  लाड़ लड़ाते हैं, प्यार दिखाते हैं, ख्याल रखते हैं, जिद पूरी करते हैं और सिर पर बिठा कर रखते हैं उससे तुम्हें अपनी और जीवन की अहमियत शुरू में ही समझ आ जाए। बेवकूफ होते हैं जो नहीं समझते। अबे किसी के मरने से किसी को क्या फर्क पड़ता है यार। अब तो शमशान में भी धूप का चश्मा लगा के जाते हैं लोग।

और, वो जब तुमने जहरीले फूलों का नाश्ता कर लिया था, साथ में बहन को भी कराया था, बस पारी बीच में छोड़ कर चल ही दिए थे तुम। डाक्टर ने भी हाथ तान दिए थे। सोचो, किसने तुम्हें बचाया और क्यों? क्योंकि तुमसे कुछ खास कराना चाहता था। इस मुगालते में मत रहना कि फिर बचाएगा। इस बार बेटा लात और पड़ेगी जाते जाते। बिलबिलाते बिलखते हुए खिसकोगे ऊपर को। 

कभी बेचारे और कभी महान बनने का नाटक बहुत करते हो तुम। मेरे सामने तो नंगें ही रहोगे हमेशा। क्या रोना रोते हो कि मैं सबको इतना खुश रखने की कोशिश करता हूँ पर मेरे बारे में कोई नहीं सोचता। भईया, अपनी मर्जी से करते हो। किसी ने कहा नहीं तुमसे। कोई तुम्हारे जितना परोपकारी नहीं तो रोओगे तुम? कोई बदला चुकाएगा इस उम्मीद से करते हो तो मत किया करो। तुमने क्या अपने माँ- बाप के किए का बदला चुकाया है? तुम्हें  खुश रखने के लिए ही पैदा नहीं हुए हैं लोग। अबे, आजकल लोगों के पास अपनी परेशानियाँ इतनी सारी हैं कि उनसे निबटें या तुम्हें सुलटें।

याद है स्कूल में कार वाली अमीर लड़की पर लट्टू हो गए थे तुम। उसने घास भी नहीं डाली थी। और फिर वो कालेज में भी धोखा खाया था। हर बार जोर से गिरे। दिल टूटा पर संभले न। अब क्या उससे भी बड़ी आफत आ गई।

 गलती तो सबसे होती है यार। मैं हजार किस्से जानता हूँ जब तुमने बहुत बड़ी गल्तियाँ की और खुद को फटाफट माफ कर दिया । फिर दूसरों से भी उम्मीद की कि वो तुम्हें एक और मौका दे दें।
याद है जब पिताजी ने चौपाल वाले प्लाटॅ का भुमि पूजन कराया था और चाँदी के नागों का जोड़ा सवा रुपये के साथ वहाँ गाड़ा था, तुम वहाँ से वो सवा रूपये निकाल लाए थे और माँ को बता भी दिया था। पिताजी को दोबारा पूजा करानी पड़ी थी। उन्होंने तुम्हें कुछ भी नहीं कहा था। 
और भी बहुत सारी गिना सकता हूँ पर  तुम खुद याद कर लो तो ज्यादा अच्छा रहेगा।

बात सिर्फ इतनी सी है कि न्यायाधीश मत बनो यार। ऊपरवाले को भी कुछ करने दोगे या नहीं।

इतनी उम्र तो जी चुके हो कि जीवन क्या है समझ चुके होंगे। यदि कहो कि नहीं समझे तो झूठ होगा। एक बार पढ़ा था न हमने -

                                                               "जीवन तो इति न अथ है
                                                                 जीवन एक साधना पथ है"


अब तो समझ आ गया होगा कि यह साधना पथ क्यों है। तुम्हारे प्रत्येक संघर्ष में साझीदार रहा हूँ। जानता हूँ कि तुम्हें छोटी हो या बड़ी, कोई भी सफलता सरलता से नहीं मिली। असफल भी रहे हो, गिरे भी हो, टूटे भी हो पर जुड़ भी तो गए हो फिर । बहुत नहीं पर कुछ उपलब्धियाँ तो हैं न तुम्हारे नाम। मुझे पता है कि तुम उनसे संतुष्ट हो किन्तु फिर भी कह रहा हूँ क्योंकि चाहता हूँ कि उन्हें सर्वोपरि रख कर अपने लिए सारी खुशी वहीं से दुह लो। उन्हें रिश्तों में मत ढूँढों। नहीं मिलेंगी। चाहे वो प्यार हो, शादी हो, माँ-बाप के साथ हो, भाई-बहन के साथ हो, बच्चों, दोस्तों या दूसरे रिश्तेदारों के साथ। सबकी अपनी बुद्धि होती है और सबके अपने दृष्टिकोण। समझगुरू मत बनो।

तुममें सबसे अच्छी बात पता है क्या है? ये जो तुम शोर मचाती भीड़ में भी अकेले होकर खुद को खंगालते हो न बार-बार, बस ये ही है वो बात, जो तुम्हें असाधारण बनाती है। असाधारण इसलिए क्योंकि उस समय तुम अपने व्यवहार, अपने शब्दों और अपने आप को ज्यादा तौलते हो और दूसरों को कम। जब से तुमने ऐसा करना शुरू किया है, तुममें परिवर्तन हुआ है।

हाँ, लगातार, बिना रुके मुझसे बातें करने की तुम्हारी आदत मुझे बस उस समय खिजा देती है जब तुम शिकायत करते हो कि कोई तुम्हें समझता नहीं। अरे भाई! किसी ने तुम्हें समझने का ठेका लिया है क्या? न तो समझने का लिया है और न समझाने का। सबको उनकी सोच और समझ के साथ जीने दो। ये उनका अधिकार है। अच्छा-बुरा उनके साथ। शायद तुम्हें इस बात की चिंता रहती है कि उनकी गलत समझ का परिणाम तुम्हें भी भुगतना पड़ेगा। 

वो तो भुगतना पड़ेगा ही भाई। वो तुम्हारे जीवन का हिस्सा हैं। वो भी तो सहते होंगे तुम्हारी सोच और तुम्हारी समझ। तुम भी महा बुद्धिमान गणेश या फिर चाणक्य के अवसाद से तो पैदा हुए नहीं हो।

और हाँ, ये सम्मान और अपमान क्या होता है यार? जब तक हम अपने में विश्वास करते हैं, कोई हमारा 
अपमान नहीं कर सकता | और सम्मान, सच पूछो तो अधिकांशतः झूठा होता है| दिखावा, छलावा , मतलब के लिए किया गया ढोंग | सच्चा सम्मान करने वाला आदमी तुम्हें जताएगा ही नहीं कभी कि वो तुम्हारा कितना सम्मान करता है | याद है न स्कूल में मिश्रा सर क्या कहा करते थे -

                                                " भूले भटके कभी तो मेरा नाम लिया जायेगा 

                                              आंसू जब सम्मानित होंगे, मुझे याद किया जायेगा "

कम बोला करो। आजकल रिश्तों की सड़कें इतनी संकरी हो गईं हैं कि उन पर जबान को बेलगाम दौड़ाया नहीं जा सकता। वो तो बस कुछ दोस्तों के साथ ही संभव हो पाता है और ऐसे दोस्तों की प्रजाति विलुप्त होने वाली है जल्दी। अब इसमें क्या तुम खुशनसीब नहीं हो कि तुम्हारे पास ऐसे दोस्त हैं?  गिने-चुने ही सही पर हैं तो।

अपने अहम को तो तुमने बहुत पहले ही पीछे की जेब में रख लिया था। अब अच्छा होगा उसे निकाल कर बाहर फेंक दो। और भावनाएँ छिपाना सीखो। घर में हो न हो , मन में एक तहखाना जरूर होना चाहिए। भावनाओं की पोटली बाँधों और फेंक दो उसमें। सोने से भी मंहगीं हैं आजकल। हर जगह नुमाईश करोगे तो डकैती तो पड़ेगी ही।
अपनी ढपली बजाते रहो और बोलते रहो-

                                              रोने वाले रोते रहेंगे, पर हम तो साले ऐसे ही रहेंगे।

समझे मियाँ परेशां खान। चलो, खुद पर तरस निचोड़ना बंद करो। उठो, अब क्या इस बगीचे में ही बैठे रहोगे।

14 टिप्‍पणियां:

  1. Seedhe man ke tehkhane se nikala hai ye vyangpoorn kataaksh...Jeevan ek saadhna path hai. Very good.

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  2. Rajeev sir, with due respect, shayad apne nivedan nahin padaa. And being a writer yourself, you know that everything we write is not " aap beeti". Please don't mind.

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  3. A very deep n profound letter ....
    A hidden but universal struggle between the conscious and the unconscious mind ...
    inspires to introspect ....
    Superb !

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  5. Amazing conversation with self. Hats off to your writing skill

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