मंगलवार, 12 जुलाई 2016

किन्नर

                                                                                   
                                                                                     

                                                                               किन्नर 


उन्नीस साल का था, अधपका, कम स्याना और दबा-दबा, जब पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करनी पड़ी। शायद परिस्थितियों ने अल्हड़पन निगल लिया था। चुप-चुप रहता था क्योंकि किसी को बताने के लिए कुछ था ही नहीं। तभी तभी सपनों की तेरहवीं की थी। शक्ल मातम मनाती रहती थी।

अशोक विहार के एक स्कूल में लैब-एटंडेंट के पद पर नौकरी लगी थी, लगी क्या थी पिताजी ने किसी से कहकर लगवाई थी। मल्का गंज से ११५ नम्बर बस पकड़ता था। दो रुपये का टिकट जाते हुए और दो रुपये आते हुए। माँ दस रुपए रोज़ देती थी, 'खर्च चार ही करना । जेब खाली नहीं होनी चाहिए।' मैं यह सोचते हुए घर से निकल जाता था कि जाने कौन सी मुसीबतें होंगी जिनका सामना मैं छह रुपयों के साथ कर लूँगा।

नौकरी को एक हफ्ता हो गया था। एक सुबह मायूसी का बस्ता टाँगे मैं वहीं मल्का गंज के बस स्टॉप पर खड़ा था।दो किन्नर भी वही खड़े थे बस के इंतज़ार में । दो बार पहले भी देखा था उन्हें। बस आई। मैं टिकट लेकर पीछे वाली सीट पर बैठ गया। किन्नर वहाँ पहले ही बैठे थे। मेरे बाद उनमें से एक टिकट लेने कंडक्टर के पास गया, सौ रुपये का नोट लेकर। 
'टूटे दे। छयानवे कहाँ से वापस दूँगा तुझे।' डी.टी.सी. के कंडक्टर किसी और ही मिट्टी के बने होते हैं।
'टूटे न हैं,' किन्नर सहमी आवाज़ में बोला।

'नीचे उतर लो फेर,' कहकर कंडक्टर ने सीटी बजा दी। मुझे पता नहीं क्या हुआ, बिना अपनी जेब का गणित किए खड़ा हुआ और चार रुपये कंडक्टर की ओर बढ़ा दिए, 'टिकट दे दीजिए।' शायद इसलिए क्योंकि बचपन से सुनता आया था कि हीजड़ों की दुआएँ खाली नहीं जाती। दुखों से घिरा आदमी सुखों से ज्यादा दुआओं की तलाश में रहता है। किन्नर मुझे देखता रहा। 

सीट पर वापस आकर किन्नरों ने आशीषों की झड़ी लगा दी। चार रुपये में चार सौ दुआएँ खरीद ली थीं मैंने।

अगले दिन किन्नर बस स्टॉप पर मिले । मेरे पहुँचते ही पचास का नोट मेरी तरफ बढ़ाया, 'ले भैया, रख ले।' मैंने नोट नहीं पकड़ा।

'खुले नहीं हैं मेरे पास। चार ही दे दीजिए बस।'

'वापस नहीं माँग रही, भैया। सारे रख ले।'

उसने मेरा हाथ पकड़ कर उठाया, नोट थमाने के लिए । मैंने मुठ्ठी बाँध ली।

'आपकी दुआएँ कहाँ से लौटाऊँगा मैं? देने हैं तो बस चार ही दीजिए।' मैंने कहा। दोनों किन्नरों ने बारी बारी मेरी बलाएँ ले लीं।

'बस में देती हूँ या फिर कल।' कहकर उन्होंने फिर मुझे ढेरों आशीर्वाद दे डाले।

दिन बीतने लगे। किन्नर अक्सर मिलते थे। रोज़ बलाएं लेते थे। कई बार लाख मना करने पर भी मेरा टिकट ले लेते थे। दस बारह दिन में कोफ्त होने लगी थी मुझे। शायद उनके व्यवहार से कम और घूरते फुसफुसाते लोगों से ज्यादा परेशानी थी मुझे। जब मेरे पास टाईम होता तो दूर खड़े होकर उनके चले जाने का इंतजार करता। फिर दूसरी बस पकड़ता था।
तनख्वाह का दिन आ गया। माँ ने हिसाब समझा दिया था । अठारह सौ नवासी रुपये  तनख्वाह मिलेगी। अठारह सौ पचास रुपये  निकालना । पंद्रह सौ घर में देना और साढ़े तीन सौ खुद रख लेना। अगले महीने किराया नहीं दूँगी मैं। और हाँ, पहली कमाई है। आते समय आजादपुर से लड्डु-गोपाल के वस्त्र और भोग के लिए कुछ लेते आना।'

बैंक का एक्सटेंशन काउंटर स्कूल में ही था। कैशियर ने सारे  पचास के नोट दे दिये थे। नोटों की इतनी मोटी तह सहेज कर जेब फूला नहीं समा रही थी। 

छुट्टी हुई तो आजादपुर जाने के लिए मैंने 235 रूट नंबर की बस पकड़ी। प्रेमबाड़ी पुल पार करते ही बस में साथ खड़े लड़के ने जेब पर हाथ मारा। मुझे पता चल गया और मैं अलग हट कर खड़ा हो गया। शालीमार बाग पार हुआ तो उसने फिर कोशिश की। मैं चौकन्ना था। मैंने उसकी कलाई पकड़ ली।

'क्या बात है?' मैंने उसे घूरते हुए पूछा और जेब में हाथ डालकर नोटों को ढक लिया।

'क्या?' उसने पलटकर कहा, बड़ी लापरवाही से।

'जेब पर हाथ क्यों मार रहा है बार-बार। जेबकतरा है?'

उसने मेरे कंधे को धक्का दिया, 'जेबकतरा किसको बोला । हैं, जेबकतरा किसको बोला?'

'तुझे ही बोला है। जेब पे हाथ मार रहा है बार -बार,' मैंने आसपास खड़े लोगों की तरफ देखते हुए कहा । कोई कुछ नहीं बोला। बस आजादपुर पहुँच ही गई थी।

'चल नीचे आ जा। अभी तेरी गर्मी निकालता हूँ।' जेबकतरा जानता था कि मुझे वहीं उतरना है। शायद टिकट लेते समय सुन लिया था उसने। मैं जान चुका था कि  वो अकेला नहीं है क्योंकि मुझे पीछे से भी कोई धक्का दे रहा था। मुझे सिर्फ अपनी पहली कमाई की चिंता थी। पिटना तो मेरा तय था। 

आजादपुर बस स्टाप पर उतरते ही मेरे चारों तरफ घेरा बन गया। मैंने तो दो की ही उम्मीद की थी पर वो पाँच लोग थे। बस के स्टॉप से रवाना होते ही मुझे बस से उतारने वाले जेबकतरे ने मुझे थप्पड़ जड़ दिया।

'हीरो बन रहा था न। कर क्या करेगा, जेबकतरा ही हूँ मैं।' मेरा एक हाथ अब भी मेरी जेब में ही था। दूसरे हाथ से मैंने उसकी ठोड़ी पकड़ ली। लोग तमाशा देखने के लिए इकट्ठे होने लगे थे। मेरी पीठ पर कुछ घूंसे पड़े। एक ने  जेब वाला हाथ भी बाहर खींचा। मैं मदद के लिए चिल्ला रहा था और वो मुझे गालियाँ दे रहे थे। शायद जानते थे कि भीड़ सिर्फ तमाशबीन लोगों की है।

अचानक भीड़ में से आवाज़ आई, 'भैया तू।' आवाज़ जानी पहचानी थी। मैंने मुड़ कर देखा। तीन किन्नर भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ रहे थे।

'क्या हुआ?' किन्नर बोला, 'जेबकतरे हैं न ये?'

मैंने गर्दन हिलाई।

'तू जा भाई। इन्हें हम देख लेंगे।' दूसरा किन्नर बोला ।

पता नहीं कौन सी बस स्टैंड पर खड़ी थी। मैं चढ़ गया। चलती बस से देखा तो जेबकतरों की पिटाई शुरू हो गई थी।

'एक मर्द की रक्षा आज हीजड़ों ने की ' मैं सोच रहा था,'इनका लिंग बनाने में भगवान से गलती जरूर हो गई पर इनका दिल सोने का बनाया है उसने।'

लड्डू -गोपाल के वस्त्र और भोग तो मैंने किंगस्वे कैंप से खरीद लिए पर सच में भोग लगाने का मन तो उन किन्नरों को था जिन्होंने मेरी पहली तनख्वाह और मुझे पिटने से बचाया था।



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11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत स्पर्शी और भावपूर्ण।
    शुभेच्छा!!

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  2. धन्यवाद, समृति जी। असीम आभार।

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  3. सच्चाई बयां करती एक रोचक तथा मर्मस्पर्शी कहानी!

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    1. बहुत आभार, स्नेहा। आशा है आपका आशीर्वाद बना रहेगा।

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  4. No words. Speechless :) bahut hi Marmik varnan !
    Looking forward to read more from you. :)

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  5. Jaane kaun si musibatein hongi jinka saamna main 6 rupiyon se kar loonga....Beautiful and Heartfelt narration.

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  6. Jaane kaun si musibatein hongi jinka saamna main 6 rupiyon se kar loonga....Beautiful and Heartfelt narration.

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